________________ 204 माचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध ब्रह्मचर्यः (चारित्र या गुरुकुल) में वास करके वसु (संयमी साधु) अथवा अनबसु (सराग साधु या श्रावक) धर्म को यथार्थ रूप से जानकर भी कुछ कुशील (मलिन चारित्र वाले) व्यक्ति उस धर्म का पालन करने में समर्थ नहीं होते। वे वस्त्र, पात्र, कम्बल एवं पाद-प्रोंछन को छोड़कर उत्तरोत्तर पाने वाले दुःसह परिषहों को नहीं सह सकने के कारण (मुनि-धर्म का त्याग कर देते हैं)। विविध काम-भोगों को अपनाकर (उन पर) गाढ़ ममत्व रखने वाले व्यक्ति का तत्काल (प्रव्रज्या-परित्याग के बाद ही) अन्तर्मुहूर्त में या अपरिमित (किसी भी) समय में शरीर छूट सकता है-(प्रात्मा और शरीर का भेद न चाहते हुए भी हो सकता है)। ___इस प्रकार वे अनेक विघ्नों और द्वन्द्वों (विरोधों) या अपूर्णतामों से युक्त काम-भोगों से अतृप्त ही रहते हैं (अथवा उनका पार नहीं पा सकते, बीच में ही समाप्त हो जाते हैं। विवेचन-इस उद्देशक में मुख्यतया प्रात्मा से बाह्य (पर) भावों के संग के त्याग रूप * धूत का सभी पहलुओं से प्रतिपादन किया गया है। 'आतुरं लोगमायाए'---इस पंक्ति में लोक और आतुर शब्द विचारणीय हैं / लोक शब्द के दो अर्थ वृत्तिकार ने किये हैं माता-पिता, स्त्री-पुरुष प्रादि पूर्व-संयोगी स्वजन लोक और प्राणिलोक / इसी प्रकार आतुर शब्द के भी दो अर्थ यहाँ अंकित हैं-स्वजनलोक उस मुनि के वियोग के कारण या उसके बिना व्यवसाय आदि कार्य ठप्प हो जाने से स्नेह-राग से आतुरं होता है और प्राणिलोक इच्छाकाम और मदनकाम से अातुर होता है / / 'इत्ता पुष्वसंजोग'-किसी सजीव व निर्जीव वस्तु के साथ संयोग होने से धीरे-धीरे आसक्ति, स्नेह-राग, काम-राग या ममत्वभाव बढ़ता जाता है, इसलिए प्रव्रज्या-ग्रहण से पूर्व जिन-जिन के साथ ममत्वयुक्त संयोगसम्बन्ध था, उसे छोड़कर ही सच्चे अर्थ में अनगार बन सकता है / इसीलिए उत्तराध्ययनसूत्र (11) में कहा गया है 'संजोगा विष्पमुक्कस्स अणगारस्स भिक्खुणो' (संयोग से विशेष प्रकार से मुक्त अनगार और गृहत्यागी भिक्षु के ") / चूणि में इसके स्थान पर 'जहिता पुय्यमायतणं' पूर्व आयतन को छोड़कर, ऐसा पाठ है। आयतन का अर्थ शब्दकोष के अनुसार यहाँ 'कर्मबन्ध का कारण' या 'माश्रय' ये दो ही उचित प्रतीत होते हैं / 'वसित्ता संभचेरंसि' यहाँ प्रसंगवश ब्रह्मचर्य का अर्थ गुरुकुलवास या चारित्र ही उपयुक्त लगता है। गुरुकुल (गुरु के सान्निध्य) में निवास करके या चारित्र में रमण करके, ये दोनों अर्थ फलित होते हैं / 1. (क) प्राचा० शीला० टोका पत्रांक 217 / (ख) आचारांग चूणि प्राचा० मूल पृष्ठ 61 / 3. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 217. 2. (क) आचा० शीला टीका पत्रांक 217 / (ख) 'पाइयसद्दमहण्णवो' पृष्ठ 114 / (ख) पायारो (मुनि नथमल जी) पृ० 235 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org