________________ 46ठ अध्ययन द्वितीय उदेशक सूत्र 183 .203 प्राचार्य श्री अर्थ यों है--इस (पूर्वोक्त) ज्ञान को सम्यक् प्रकार से अनुकूल रूप में प्राचार्य श्री के सान्निध्य में रहकर अपने भीतर में बसा लें, उतार ले।' // प्रथम उद्देशक समाप्त // . बीमओ उद्देसओ .: द्वितीय उद्देशक सर्वसंग परित्यागी व्रत का स्वरूप : ... ..... ... ... ... 183. आतुरं लोगमायाए चइता पुच्छसंजोग हेच्चा उपसमं वसित्ता बंभचेरंसि वसु वा अणुबसु वा जाणित धम्म अहा तहा अहेगे तमचाइ कुसीला वत्यं पडिग्गहं कंबलं पायपुछणं बिउसिम अणुपुध्वेण अषियासेमाणा परीसहे दुरेहियासए। .:. कामे ममायमाणस्स इवाणि,वा. महत वा अपरिमाणाए मेवे। .. - एवं' से अंतराइएहिं कामेहि आकेलिएहि, भवितिणणा' चेते / 183. (काम-राग आदि से) आतुर लोक (--माता-पिता आदि सम्बन्धित समस्त प्राणिजगत्) को भलीभाँति जानकर, पूर्व संयोग को छोड़कर, उपशम को प्राप्त कर, 1. वृत्तिकार-‘एतत्' (पूर्वोक्तं) 'ज्ञान' सदा आत्मनि सम्यगनुवासयेः व्यवस्थापयेः / ' -~-प्राचा० शीला टीका पत्रांक 217 : शिकार---'एत गाणं सम्म अणुकुल आयरिय समीवे अणुवसाहि-अणुवसिज्जासि / वही, सू० 182 2. पाठान्तर चूणि में इस प्रकार है---'जाहिता पुढवमायतणं' अर्थ है-पूर्व प्रायतन को छोड़कर। . 3. इसका अर्थ चूणिकार के शब्दों में—'इह एच्छा हिंञ्चा' आदि अक्बरलोवा हिच्चा, इहेति अस्मि - प्रवचने। 'हिच्चा' की इस प्रकार स्थिति थी-इह+ एच्चा = हिच्चा। आदि के इकार का लोप हो - गया / अर्थ-इस प्रवचन-संघ में (उपशम को) प्राप्त करके / 4. चूणि में पाठान्तर के साथ अर्थ यों दिया गया है—'तमच्चाई""अच्चाई णाम अच्चाएमाणों, जंभणित __ असत्तमंता'-अत्यागी कहते हैं- त्याज्य (पापादि व असंयम) को न त्यागने वाले, अथवा जो कहीं -- है, उतना पालन करने में प्रशक्त।। , 5. विसेज्जा, विओसेज्जा, वियोसेज्जा' प्रादि पाठान्तर मिलते हैं। अर्थ एक-सा है। चूर्णि में अर्थ दिया '. है--विउसज्ज-विविहं उसज्जा-विविध :उत्सर्ग / ........ . . / 6. एवं से अंतराइएहि' में ‘एवं' शब्द अवधारण अर्थ में है। अवधारण से ही काम-भोग अन्तराययुक्त .. होते हैं। 7. 'आकेवलिदहि' का चूणि में अर्थ है--"केवलं संपुण्णं, पण केवलिया.असंपुण्णा / ' केवल यानी सम्पूर्ण - अकेवल यानी असम्पूर्ण / ' 8. 'अवितिण्णा' का स्पष्टीकरण चूणि में यों किया गया है-"विविहं तिण्णा वितिण्णा, " वितिण्या' विणा वेरग्गेणं ण एते, कोति तिण्णपुचो तरति वा तरिस्सइ वा ? जहा- अलं ममतेहि।"---जो विविध प्रकार से तीर्ण नहीं हैं, पार नहीं पाए जाते, वे अवितीर्ण हैं। वैराग्य के विना ये (पार)..होते नहीं। अतः कौन ऐसा है, जो काम-सागर को पार कर चुका है ? पार कर रहा है या पार करेगा? कोई नहीं। इसलिए कहा-ममता मत करो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org