________________ आचारांग. सूत्रप्रथम भुसस्कम स्थविर, क्षपक, परिहार-विशुद्धि आदि उत्तम अवस्थानों को प्राप्त करना भी अभिनिष्क्रान्त कोटि में आता है। कितना दुर्लभ, दुर्गम और दुष्कर कम है मुनिधर्म में प्रद्रजित, होने तक का / यही धूत बनने योग्य अवस्था है।' अभिसम्भूत से अभिनिष्क्रान्त तक की धूत ,बनने की प्रक्रिया को देखते हुए एक तथ्य यह स्पष्ट हो जाता है कि पूर्वजन्म के संस्कार, इस जन्म में माता-पिता आदि के रक्त-सम्बन्धः जनित संस्कार तथा सामाजिक वातावरण से प्राप्त संस्कार धूत बनने के लिए आवश्यक व उपयोगी होते हैं। धूतवादी महामुनि की अग्नि-परीक्षा-धूत बनने के दुष्कर क्रम को बताकर उस धूतवादी महामुनि की आन्तरिक अनासक्ति की परीक्षा कब होती है ? यह बताते हुए कहा है कि 'स्वजन-परित्यागरूप धूत की प्रक्रिया के बाद उसके मोहाविष्ट स्वजनों की ओर से करुणाजनक विलाप आदि द्वारा पुनः गहवास में खींचने के लिए किस-किस प्रकार के उपाय अजमाये जाते हैं ? इसे शास्त्रकार स्पष्ट रूप में सू० 182 में चित्रित करते हैं / साथ ही वे स्वजनपरित्यागरूप धूत में दृढ बने रहने के लिए धूतवादी महामुनि को प्रेरित करते हैं-'सरणं तत्प नो समेति, किह णाम से सत्य रमति,?'. वृत्तिकार इसका भावार्थ लिखते हैं जिस (महामुनि) ने संसार-स्वभाव को भलीभांति जान लिया है, वह उस अवसर पर अनुरक्त बन्धु-बान्धवों को शरण-ग्रहण स्वीकार नहीं करता / जिसने मोह-कपाट तोड़ दिए हैं, भला वह समस्त बुराइयों और दुःखों के स्थान एवं मोक्ष द्वार में अवरोधक गृहवास में कैसे प्रासक्ति कर सकता है ? 2 _ 'अतारिसे मुणी ओहं तरए...' शास्त्रकार स्वजन-परित्याग रूप धूतवाद में अविचल रहने वाले महामुनि का परीक्षाफल घोषित करते हुए कहते हैं-वह अनन्यसदृश-(अद्वितीय) मुनि संसार-सागर से उत्तीर्ण हो जाता है। यहाँ 'अतारिसे' शब्द के दो अर्थ चूणिकार ने किए हैं-(१) जो इस धर्म-संकट को पार कर जाता है, वह संसार-सागर को फोर कर जाता है; (3) उस मुनि के जैसा कोई नहीं हैं, जो संसार के प्रवाह को पार कर जाता है। .........समणुवासेज्जासि'-वृत्तिकार और चूणिकार दोनों इस पंक्ति की पृथक्-पृथक् व्याख्या करते हैं। वृत्तिकार के अनुसार अर्थ है-इस (पूर्वोक्त धूतवाद के) ज्ञान को सदा आत्मा में सम्यक् प्रकार से अनुवासित--स्थापित कर ले-जमा ले / चूर्णिकार के अनुसार 1. (क) आचा० शीला टीका पत्र 2.17 / . 2. प्राचा० शीला० टोका पत्र.२१७ / 3. (क) संसारसागरं तारी मुगी भवति / अयमा अतारिसो-ण सारिसो मुणो गस्थि जेण" . -आचारांग चूणि पृष्ठ 60 सूत्र 182 (ख) न ताहशो मुनिर्भवति, न चौघ-संसार तर रति / -प्राचा० शीला टीका पत्र, 217 . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org