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________________ षष्ठ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 101-182 ܕܘܐ है, अथवा ज्ञाति (परिजनों) के परित्याग को भी धूत बताया है / चूणि के अनुसार धूत उसे कहते हैं, जिसने कर्मों को तपस्या से प्रकम्पित/नष्ट कर दिया / धूत का वाद-सिद्धान्त या दर्शन धूतवाद कहलाता है।' नागार्जुनीय सम्मत पाठ है-'धूतोवायं पवेएंति' अर्थात्-धूतोपाय का प्रतिपादन करते हैं / धूतोपाय का मतलब है-अष्टविध कर्मों को धूनने-क्षय करने का उपाय / ' धूत इतने का दुर्गम एवं दुष्कर क्रम-शास्त्रकार ने 'इहं खलु अत्तताए...' 'अणुपुब्वेण महामुणी' तक की पंक्ति में धूत (कर्मक्षय कर्ता) बनने का क्रम इस प्रकार बताया है- इसके 6 सोपान हैं--(१) अभिसम्भूत, (2) अभिसंजात, (3) अभिनिर्वृत्त, (4) अभिसंवृद्ध, (5) अभिसम्बुद्ध और (6) अभिनिष्क्रान्त / इनका स्पष्टीकरण इस प्रकार किया गया है अभिसम्भूत-सर्वप्रथम अपने किये हुए कर्मों के परिणाम (फल) भोगने के लिए स्वकर्मानुसार उस-उस मानव कुल में सात दिन तक कलल (पिता के शुक्र और माता के.रज) के अभिषेक के रूप में बने रहना; इसे अभिसम्भूत कहते हैं। अभिसंजात--फिर 7 दिन तक अर्बुद के रूप में बनना, तब अर्बुद से पेशी बनना और पेशी से घन तक बनना अभिसंजात कहलाता है। अभिनिवत-उसके पश्चात् क्रमशः अंग, प्रत्यंग, स्नायु, सिरा, रोम आदि का निष्पन्न होना अभिनिवृत्त कहलाता है / अमिसंबद्ध-इसके पश्चात् माता-पिता के गर्भ से उसका प्रसव (जन्म) होने से लेकर समझदार होने तक संवर्धन होना अभिसंवृद्ध कहलाता है / अभिसम्बुद्ध--- इसके अनन्तर धर्मश्रवण करने योग्य अवस्था पाकर पूर्व पुण्य के फलस्वरूप धर्मकथा सुनकर पुण्य-पापादि नौ तत्त्वों को भली-भाँति जानना, गुरु आदि के निमित्त से सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान प्राप्त करके, संसार के स्वरूप का बोध प्राप्त करना अभिसम्बुद्ध बनना कहलाता है। अभिनिष्क्रान्त - इसके पश्चात विरक्त होकर घर-परिवार, भूमि-सम्पत्ति आदि सबका परित्याग करके मुनिधर्म पालन के लिए अभिनिष्कमण (दीक्षा-ग्रहण) करना अभिनिष्क्रान्त कहलाता है / इतना ही नहीं, दीक्षा लेने के बाद गुरु के सान्निध्य में शास्त्रों का गहन अध्ययन, रत्नत्रय की साधना आदि के द्वारा चारित्र के परिणामों में वृद्धि करना और क्रमशः गीतार्थ, 1. आचा० शीला टीका पत्र 216, 'धूतमष्टप्रकारकर्मधूननं, ज्ञातिपरित्यागो वा तस्य वादी धूतवादः / ' चणि में--'धुजत्ति जेण कम्मं तवसा तं धूयं भणितं, धुयस्स वादो।' 2. अष्टप्रकारकर्म-'धूननोपायं वा प्रवेदयन्ति तीर्थकरादयः।' प्राचा० शीला० टीका 216 / 3. सप्ताह कललं विद्यात् ततः सप्ताहमवुदम् / अबुंदाजायते पेशी, पेशोतोऽपि धनं भवेत् / / -(उद्धृत) प्राचा० शीला टीका पत्रांक 216 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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