________________ 2.0 भाचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध है, ऐसा व्यक्ति न मुनि हो सकता है और न ही संसार-सागर को पार कर सकता है। ___ वह मुनि (पारिवारिक जनों का विलाप–रुदन सुनकर) उनकी शरण में नहीं जाता, (वह उनकी बात स्वीकार नहीं करता)। वह तन्वज्ञ पुरुष भला कैसे उस (गृहवास) में रमण कर सकता है ? . ___मुनि इस (पूर्वोक्त) ज्ञान को सदा (अपनी आत्मा में) अच्छी तरह बसा ले (स्थापित कर ले। —ऐसा मैं कहता हूँ। * विवेचन--धूतवाद के श्रवण और पर्यालोचन के लिए प्रेरणा-धूतवाद क्यों मानना और सुनना चाहिए? इसकी भूमिका इन सूत्रों में शास्त्रकार ने बाँधी है। वास्तव में सांसारिक जीवों को नाना दुःख, कष्ट और रोग आते हैं, वह उनका प्रतीकार दूसरों को पीड़ा देकर करता है, किन्तु जब तक उनके मूल का छेदन नहीं करता, तब तक ये दु:ख, रोग और कष्ट नहीं मिटते / मूल हैं-कर्म / कर्मों का उच्छेद ही धूत है / कर्मों के उच्छेद का सर्वोत्तम उपाय है---शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव-निर्जीव पदार्थों पर से प्रासक्ति, मोह आदि का त्याग करना। त्याग और तप के बिना कर्म निर्मूल नहीं हो पाते / इसके लिए सर्वप्रथम गृहासक्ति और स्वजनासक्ति का त्याग करना अनिवार्य है और वह स्व-चितन से ही उद्भूत होगी / तभी वह कर्मों का धूनन (क्षय) करके इन (पूर्वोक्त) दुःखों से सर्वथा मुक्त हो सकता है। यही कारण है कि शास्त्रकार ने बारम्बार साधक को स्वयं देखने एवं सोचने-विचारने की प्रेरणा दी है-वह स्वयं विचार कर मन को आसक्ति के बंधन से मुक्त करे / अह पास तेहि कुलेहि आयसाए जाया....." मरण ते सि सपेहाए, उबवायं चवणं च गच्चा, परिपागं च सपेहाए....... तं सुलेह जहा तहा....." पास लोए महन्मयं....... एए रोगा बहू णच्चा ...." एयं पास मुणी! महलमयं........ मायाग भो सुस्सूस ! ......" ये सभी सूत्र स्व-चिंतन को प्रेरित करते हैं। संक्षेप में यही धूतवाद की भूमिका है। जिसके प्रतिपक्षी अधतवाद को और तदनुसार चलने के दुष्परिणामों को जान-समझकर तथा भलीभाँति देख-सुनकर साधक उससे निवृत्त हो जाए। अधूतवाद के जाल से मुक्त होने के लिए अनगार मुनि बनकर धूतवाद के अनुसार मोहमुक्त संयमी जीवन यापन करना अनिवार्य है।' धूतबाद या धृतोपाय ----वृसिकार ने आठ प्रकार के कर्मों को धुनने-झाड़ने को धूत कहा 2. प्राचा शीला० टीका पत्रांक 212-213 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org