________________ षष्ठ अध्ययन : प्रथम उ शक : सूत्र 181-12 घूतवाद का व्याख्यान 181. आयाण भो! सुस्सूस भो! घतवादी पवेदयिस्सामि / इह खलु अत्तत्ताए। तेहि तेहि कुलेहिं अभिसेएण अभिसंभूता अभिजाता अभिणि बट्टा अभिसंबुड्ढा' अभिसंबुद्धा अभिणिवखंता अणुपुध्वेण महामुणी। 182. तं परक्कमंतं परिदेवमाणा मा णे चयाहि इति ते वदंति / छंदोवणीता अझोववण्णा अक्कंदकारी जणगा रुदंति / अतारिसे मुणी ओहं तरए जणगा जेण विष्पजढा / सरणं तत्थ जो समेति / किह गाम से तत्थ रमति / एतं गाणं सया समणुवासेज्जासि त्ति बेमि / / ॥पढमो उद्देसओ सम्मत्तो॥ ... 181. हे मुने ! समझो, सुनने की इच्छा (रुचि) करो, मैं (अब) धूतवाद का निरूपण करूगा / (तुम) इस संसार में आत्मत्व (स्वकृत-कर्म के उदय) से प्रेरित होकर उन-उन कुलों में शुक्र-शोणित के अभिषेक-अभिसिंचन से माता के गर्भ में कललरूप हुए, फिर अर्बुद (मांस) और पेशी रूप बने, तदनन्तर अंगोपांग-स्नायु, नस, रोम आदि के क्रम से अभिनिष्पन्न (विकसित) हुए, फिर प्रसव होकर (जन्म लेकर) संवद्धित हुए, तत्पश्चात् अभिसम्बुद्ध (सम्बोधि को प्राप्त) हुए, फिर धर्म-श्रवण करके विरक्त होकर अभिनिष्क्रमण किया (प्रबजित हुए) इस प्रकार क्रमशः महामुनि बनते हैं। 182. (गृहबास से पराङ मुख एवं सम्बुद्ध होकर) मोक्षमार्ग--संयम में पराक्रम करते हुए उस मुनि के माता-पिता आदि करुण-विलाप करते हुए यों कहते हैं-'तुम हमें मत छोड़ो, हम तुम्हारे अभिप्राय के अनुसार व्यवहार करेंगे, तुम पर हमें ममत्व-स्नेह विश्वास) है। इस प्रकार आक्रन्द करते (चिल्लाते) हुए वे रुदन करते हैं।' (वे रुदन करते हुए स्वजन कहते हैं-) 'जिसने माता-पिता को छोड़ दिया 1. 'धूतवाद' के बदले चूणि में पाठ मिलता है धुयं वायं पवेदइस्मामि धुर्म भणितं धुयस्स वादो / धुजति जेण कम्म तवसा / —जिस तपस्या से कर्मों को धुनन-कम्पित किया जाता है, वह है-धूत / धूत का वाद दर्शन = धूतवाद है। नागार्जुनीय पाठान्तर यह है-धुतोवायं पर्ववइस्सामि-जेण"कम्मं धुणति तं उवायं ।'–जिससे कर्म धुने जाएँ-क्षय किये जाएँ, उसे धत कहते हैं, उसके उपाय को धतोपाय कहते हैं। ख्यिा चणिकार के शब्दों में देखिये-अत्तभावो अत्तता, ताए .. .."तेस तेत्ति उत्तम-ग्रहममज्झिमेस'-प्रात्मभाव-आत्मता है, उसके द्वारा....."उन-उन उत्तम-अधम-मध्यम कूलों में........" 3. 'अभिसंवडता' के बदले चणि में 'अभिबदा' पाठ है। 4. 'चयाहि' के बदले 'जहाहि' क्रियापद मिलता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org