________________ 198 माचाररांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्य विवेचन-पिछले सूत्रों में बताया है-पासक्ति में फंसा हुआ मनुष्य धर्म का आचरण नहीं कर पाता तथा वह मोह एवं वासना में गृद्ध होकर कर्मों का संचय करता रहता है। आगमों में बताये गये कर्म के मुख्यत: तीन प्रकार किये जा सकते हैं। (1) क्रियमाण (वर्तमान में किया जा रहा कर्म), (2) संचित (जो कर्म-संचय कर लिया गया है, पर अभी उदय में नहीं आया-बह बद्ध), (3) प्रारब्ध (उदय में आने वाला कर्म या भावी)। .. क्रियमाण---वर्तमान में जो कर्म किया जाता है, वहीं संचित होता है तथा भविष्य में प्रारब्ध रूप में उदय में आता है। कृत-कर्म जब अशुभ रूप में उदय प्राता है तब प्राणी उनके विपाक से अत्यन्त दुःखो, पीड़ित व त्रस्त हो उठता है। प्रस्तुत सूत्र में यही बात बताई है कि ये अपने कृत-कर्म (आयत्ताए . अपने ही किये कर्म) इस प्रकार विबिध रोगातकों के रूप में उदय प्राते हैं। तब अनेक रोगों से पीड़ित मानव उनके उपचार के लिए अनेक प्राणियों का वध करता-कराता है। उनके रक्त, मांस, कलेजे, हड्डी आदि का अपनी शारीरिक-चिकित्सा के लिए वह उपयोग करता है, परन्तु प्राय: देखा जाता है कि उन प्राणियों की हिंसा करके चिकित्सा कराने पर भी रोग नहीं जाता, क्योंकि रोग का मूल कारण विविध कर्म है, उनका क्षय या निर्जरा हुए बिना रोग मिटेगा कहाँ से ? परन्तु मोहावृत अज्ञानी इस बात को नहीं समझता / वह प्राणियों को पीड़ा पहुँचाकर और भी भयंकर कर्मबन्ध कर लेता है। इसीलिए मुनि को इस प्रकार की हिंसामूलक चिकित्सा के लिए सूत्र 180 में निषेध किया गया है।' फासा य असमंजसा-जिन्हें धूतवाद का तत्त्वज्ञान (आत्मज्ञान) प्राप्त नहीं होता, वे अपने अशुभ कर्मों के फलस्वरूप पूर्वोक्त 16 तथा अन्य अनेक रोगों में से किसी भी रोग के शिकार होते हैं, साथ ही असमंजस स्पर्शों का भी उन्हें अनुभव होता है। यहाँ चूर्णिकार ने तीन पाठ माने हैं--(१) फासा य असमजसा, (2) फासा य असमतिया, (3) फासा य असमिता / इन तीनों का अर्थ भी समझ लेना चाहिए। असमंजस का अर्थ है-उलट-पलट हो, जिनका परस्पर कोई मेल न बैठता हो, ऐसे दुःखस्पर्श / असमंतिया का अर्थ है-असमंजितस्पर्श यानी जो स्पर्श पहले कभी प्राप्त न हए हों, ऐसे अप्रत्याशित प्राप्त स्पर्श और असमित स्पर्श का अर्थ है-विषम स्पर्श ; तीव्र, मन्द या मध्यम दुःखस्पर्श / आकस्मिक रूप से होने वाले दुःखों का स्पर्श ही अज्ञ-मानव को अधिक पीड़ा देता है। संति पाणा अंधा-अंधे दो प्रकार से होते हैं-द्रव्यान्ध और भावान्ध / द्रव्यान्ध द्रव्य नेत्रों से हीन होता है और भावान्ध सद्-असद-विवेकरूप भाव चक्षु से रहित होता है। इसी प्रकार अन्धकार भी दो प्रकार का होता है-द्रव्यान्धकार --जैसे नरक आदि स्थानों में घोर अंधेरा रहता है और भावान्धकार-कर्मविपाकजन्य मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय आदि के रूप में रहता है / यहाँ पर भावान्ध प्राणो विवक्षित है, जो सम्यग्ज्ञान रूप नेत्र से हीन है तथा मिथ्यात्व रूप अन्धकार में ही भटकता है। .... 1. आचा० शीला० टोका पत्रांक 212 / 2. आचा शीला टीका पत्रांक 212 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org