________________ माघारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कम्ध * वासी रहता है या अन्त-प्रान्तभोजी होता है, वह भी ऊनोदरी तप का सम्यक् प्रकार से अनुशीलन करता है। - (कदाचित्) कोई विरोधी मनुष्य उसे (रोषवश) गाली देता है, (डंडे आदि से) मारता-पीटता है, उसके केश उखाड़ता या खींचता है (अथवा अंग-भंग करता है), पहले किये हए किसी घणित दुष्कर्म की याद दिलाकर कोई बक-झक करता है (या घृणित व असभ्य शब्द-प्रयोग करके उसकी निन्दा करता है), कोई व्यक्ति तथ्यहीन (मिथ्यारोपांत्मक) शब्दों द्वारा (सम्बोधित करता है), हाथ-पैर आदि काटने का झूठा दोषारोपण करता है। ऐसी स्थिति में मुनि सम्यक् चिन्तन द्वारा समभाव से सहन करे। उन एकजातीय (अनुकूल) और भिन्नजातीय (प्रतिकूल) परीषहों को उत्पन्न हुआ जानकर समभाव से सहन करता हुआ संयम में विचरण करे। (साथ ही वह मुनि) लज्जाकारी (याचना, अचेल आदि) और अलज्जाकारी (शीत, उष्ण आदि) (दोनों प्रकार के परीषहों को सम्यक् प्रकार से सहन करता हुअा विचरण करे)। 185. सम्यग्दर्शन-सम्पन्न मुनि सब प्रकार की शंकाएं छोड़कर दुःख-स्पर्शी को समभाव से सहे। हे मानवो! धर्मक्षेत्र में उन्हें ही नग्न (भावनग्न, निम्रन्थ या निष्किचन) कहा गया है, जो (परीषह-सहिष्णु) मुनिधर्म में दीक्षित होकर पुन: गृहवास में नहीं पाते। आज्ञा में मेरा (तीर्थंकर का) धर्म है, यह उत्तर (उत्कृष्ट) वाद/सिद्धान्त इस मनुष्यलोक में मनुष्यों के लिए प्रतिपादित किया है। विषय से उपरत साधक ही इस उत्तरवाद का आसेवन (आचरण) करता है। वह कर्मों का परिज्ञान (विवेक) करके पर्याय (मुनि-जीवन संयमीजीवन) से उसका क्षय करता है। विवेचन-धूतवादी महामुनि-जो महामुनि विशुद्ध परिणामों से श्रुत-चारित्ररूप मुनिधर्म अंगीकार करके उसके आचरण में प्राजीवन उद्यत रहते हैं, उनके लक्षण संक्षेप में इस प्रकार हैं- (1) धर्मोपकरणों का यत्नापूर्वक निर्ममत्वभाव से उपयोग करने वाला। . (2) परीषह-सहिष्णुता का अभ्यासी। .. (3) समस्त प्रमादों का यत्नापूर्वक त्यागी। (4) काम-भोगों में या स्वजन-लोक में लिप्त अनासक्त / / ' (5) तप, संयम तथा धर्माचरण में दृढ़ / (6) समस्त गद्धि-भोगाकांक्षा का परित्यागी। (7) संयम या धूतवाद के प्रति प्रणत/समर्पित / . .. ..(8) एकत्वभाव के द्वारा कामासक्ति या संग का सर्वथा त्यागी / (9) द्रव्य एवं भाव से सर्वप्रकार से मुण्डित / .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org