________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 532 221 जैन शास्त्रानुसार ये देव नहीं, पुद्गलादि द्रव्य हैं या प्राकृतिक उपहार हैं / सचित्त अग्नि, जल, वनस्पति, पृथ्वी, वायु आदि में जीव है।' निरवद्य और यथातथ्य भाषा का प्रयोग करनेवाले जैन साधु को इस मिथ्यावाद से बचने-बचाने के लिए यह विवेक बताया है, वह आकाश, मेघ, विद्यत आदि प्राकृतिक पदार्थों को देव न कहकर उनके वास्तविक नाम से ही उनका कथन करें; अन्यथा लोगों में मिथ्या धारणा फैलेगी। इसी सूत्र के उत्तरार्द्ध में वर्षा-वर्णन, धान्योत्पादन, रात्रि का आगमन, सूर्य का उदय, राजा की जय हो या न हो, इस विषय में साधु को तटस्थ रहना चाहिए; क्योंकि वर्षावर्षण आदि के कहने में सचित्त जीव विराधना का दोष लगेगा, अथवा वर्षा आदि के सम्बन्ध में भविष्य कथन करने से असत्य का दोष लगने की संभावना है, अमुक राजा की जय हो, अमुक की नहीं या अमुक की जय होगी, अमुक की पराजय, ऐसा कहने से युद्ध का अनुमोदनदोष तथा साधु के प्रति एक को मोह, दूसरे को द्वेष पैदा होगा। इसीलिए दशवकालिक सूत्र में वायु, वृष्टि, शर्दी गर्मी, क्षेम, सुभिक्ष, शिव आदि कब होंगे, या न हों, इस प्रकार की भाषा बोलने का तथा मेघ, आकाश और मानव के लिए देव शब्द का प्रयोग करने का निषेध किया है, इनके सम्बन्ध में क्या कहा जाए यह भी स्पष्ट निर्देश किया गया है। _ 'समुच्छिते' आदि पदों के अर्थ-समुच्छिते समुच्छ्रित हो रहा है---उमड़ रहा है, अथवा उन्नत हो रहा है, णिवइए==झुक रहा है, या बरस रहा है / बुट्ठ बलाहगे मेघ बरस पड़ा है। 532. एयं खलु भिक्ख स्म वा भिक्खुणोए वा सामग्गियं जं सव?हिं सहिएहि [सया जए] ज्जासि त्ति बेमि। 532. यही (भाषाजात को सम्यक् जान कर भाषाद्वय का सम्यक् आचार ही) उस साधु और साध्वी की साधुता की समग्रता है कि वह ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप अर्थों से तथा पांच समितियों से युक्त होकर सदा इसमें प्रयत्न करे। ---ऐसा मैं कहता हूँ। ॥प्रथम उद्देशक समाप्त // 1. (क) 'पृथिव्यम्बुवनस्पतय. स्थावराः', धर्माधर्माकाशकालपुद्गल, द्रव्याणि' / ' -तत्त्वार्थ अ०५ (ख) उत्तराध्ययन सूत्र अ० 36, गा० 8, 7 2. (क) दशवै० अ० 7 गा० 52. हारि० टीका.--'मिथ्यावादलाघवादिप्रसंगात्। (ख) आचारांग बत्ति पत्रांक 388 / 3. धर्मरत्न प्रकरण टीका (6/गुण 4) में वारत्त मुनि का उदाहरण दिया गया है कि चंडप्रद्योत के आक्रमण के समय उन्होंने निमित्त कथन किया, जिससे बहत अनर्थ हो गया। 4. (अ) तुलना के लिए देखिए-दशवै० अ०७ गा० 50, 51, 52, 53 तथा टिप्पण पृ० 364-65 (आ) आचारांग वृत्ति पत्रांक 388 / 5. (क) आचारांग वृत्ति पृ० 388 / (ख) दशव० (मुनिथमलजी) अ० 7/52 विवेचन पृ० 364 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org