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________________ 220 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध प्राचीन चूणियों के अनुसार ऐसा लगता है कि ये सम्बोधन पुरुष के लिए जहां निष्ठुर वचन थे, वहाँ स्त्री के लिए 'होले' 'गोले' 'वसुले'--मधुर व प्रिय आमंत्रण भी माने जाते थे। गोल देश में ये आमंत्रण प्रसिद्ध थे।' संभवतः ये निम्न वर्ग में 'प्रणय-आमंत्रण' हों, इसलिए भी इनका प्रयोग निषिद्ध किया गया। प्राकृतिक दृश्यों में कथन-अकथन 530. से भिक्खू वा 2 णो एवं वदेज्जा-"णभंदेवे ति वा, गज्जदेवे ति वा, विज्जुदेवे ति वा, पटुदेवे ति बा, णिवुद्रुदेवे ति वा, पडतु वा वासं मा वा पडतु, णिप्पज्जतु वा सासं मा वा णिप्पज्जतु, विभातु वा रयणी मा वा विभातु, उदेउ वा सूरिए मा वा उदेउ, सो वा राया जयतु।" णो एयप्पयारं भासं भासेज्जा पण्णवं / 531. से भिक्खू वा 2 अंतलिक्खे ति वा, गुज्माणुचरिते ति वा, समुच्छिते वा, णिवइए वा पओए वदेज्ज वा बुटबलाहगे त्ति। 530. संयमशील साधु या साध्वी इस प्रकार न कहें कि “नभोदेव (आकाशदेव) है, गर्ज (मेघ) देव हैं, वा विद्य तदेव हैं, प्रवृष्ट (बरसता रहनेवाला) देव है, या निवृष्ट (निरंतर बरसने वाला) देव है, वर्षा बरसे तो अच्छा या न बरसे, तो अच्छा, धान्य उत्पन्न हों या न हों, रात्रि सुशोभित (व्यतिक्रान्त) हो या न हो, सूर्य उदय हो या न हो, वह राजा जीते या न जीते।" प्रज्ञावान साधु इस प्रकार की भाषा न बोले। 531. साधु या साध्वी को कहने का प्रसंग उपस्थित हो तो आकाश को गुह्यानुचरितअन्तरिक्ष (आकाश) कहे या देवों के गमनागमन करने का मार्ग कहे। यह पयोधर (मेघ) जल देने वाला हे, संमूच्छिम जल बरसता है, या यह मेघ बरसता है, या बादल बरस चुका है, इस प्रकार की भाषा बोले। विवेचन--प्राकृतिक तत्त्वों को देव कहने को धारणा और साधु की भाषा-वैदिक युग में सूर्य, चन्द्र रात्रि, अग्नि, जल, समुद्र, मेघ, विद्युत्, आकाश, पृथ्वी, वायु, आदि प्रकृति की देनों को आम जनता देव कहती थी, आज भी कुछ लोग इन्हें देव मानते और कहते हैं, किन्तु 1. (क) होले, गोले वसुलेत्ति देसीए लालणगत्थाणीयाणि प्रियवयणामंतणाणि'--अगस्यसिंह चूर्णि पृ० 168 (ख) आचार्य जिनदास के अनुसार हलें आमंत्रण का प्रयोग वरदा-तट में, और 'हला' का प्रयोग लाटदेश (मध्य और दक्षिण गुजरात) में होता था। 'भट्टे' शब्द का प्रयोग लाटदेश में नणद के लिए किया जाता था। __-दशव० जिन चणि पु०२५० 2. 'विभातु के बदले 'विभावतु' पाठान्तर है / देखिए प्रश्नोपनिषद् में आचार्य पिप्पलाद का कथन-"तस्मै सहोदाचाकाशो हवा एष देवो वायुरग्निरापः पृथिवी वाङमनश्चक्षुश्रोत्र च। ते प्रकाश्याभिवदन्ति वयमेतद् बाणमवष्टभ्य विधारयामः।" -प्रश्न उपनिषद् प्रश्न 2/2 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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