________________ चतुर्थ अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 522-26 216 कहलाती। अतः साधक द्वारा जो बोली नहीं गई है, या बोली जाने पर भी नष्ट हो चुकी, वह भाषा की संज्ञा प्राप्त नही करेगी, वर्तमान में प्रयुक्त भाषा ही 'भाषा संज्ञा' प्राप्त करती है।' चार भाषाएँ-१. सत्या (जो भाव, करण, योग तीनों से यथार्थ हो, जैसा देखा, सुना, सोचा, समझा, अनुमान किया, वैसा ही दूसरों के प्रति प्रगट करना), 2. मृषा (झूठी), 3. सत्यामृषा (जिसमें कुछ सच हो, कुछ झूठ हो) और 4. असत्यामृषा (जो न सत्य है, न असत्य, ऐसी व्यवहारभाषा) ! इनमें से मृषा और सत्यामृषा त्याज्य हैं। 'अभिकख' का अर्थ पहले बुद्धि से पर्यालोचन करके फिर बोले।' सत्याभाषा भी 12 दोषों से युक्त हो तो अभाषणीय-सूत्र 524 में यह स्पष्ट कर दिया है कि 'सत्य' कही जाने वाली भाषा भी 12 दोषों से युक्त हो तो असत्य और अवाच्य हो जाती है। 12 दोष ये हैं--(१) सावद्या (पापसहित), 2. सक्रिया (अनर्थदण्डप्रवृत्तिरूप क्रिया से युक्त) (3) कर्कशा (क्लेशकारिणी, दर्पित अक्षरवाली), (4) निष्ठुरा (हक्काप्रधान, जकार-सकारयुक्त, निर्दयतापूर्वक डांट-डपट)(५) परुषा (कठोर, स्नेहरहित, मर्मोद्घाटनपरकवचन),(६) कटुका (कड़वी, चित्त में उद्वेग पैदा करनेवाली) (7) आस्रवजनक, (8) छेदकारिणी (प्रीतिछेद करने वाली), () भेदकारिणी (फूट डालनेवाली, स्वजनों में भेद पैदा करनेवाली), (10) परितापकरी, (11) उपद्रवकरी (तूफान दंगे या उपद्रव करनेवाली, भयभीत करनेवाली), (12) भूतोपघातिनी (जिससे प्राणियों का घात हो)। वस्तुतः अहिंसात्मक वाणी ही भाव-शुद्धि का निमित्त बनती है। सम्बोधन में भाषा-विवेक–४ सूत्रों (526 से 526) द्वारा शास्त्रकार ने स्त्री-पुरुषों को सम्बोधन में निषिद्ध और विहित भाषा-प्रयोग का विवेक बताया है। होलेत्ति वा गोलेत्ति वा-होल-गोल आदि शब्द प्राचीन समय में निष्ठुरवचन के रूप में प्रयुक्त होते थे। इसप्रकार के शब्द सुननेवाले का हृदय दुखी व क्षुब्ध हो जाता था अतः शास्त्रों में अनेक स्थानों पर इसप्रकार के सम्बोधनों का निषेध है। 1. आचारांग वृत्ति पत्रांक 387 2. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 387 (ख) आचारांग चूणि मू० पा० टिप्पणी 175 पृ. (ग) देखिये दशव० अ० 7 गा० 3 की व्याख्या 3. (अ) आचारांग वृत्ति 387 पत्रांक (आ) पुन्वं बुद्धीइ पेहित्ता पच्छावयमुदाहरे अचक्खु ओ व नेतारं बुद्धिमन्नउ ते गिरा // दशवै० नियुक्ति गा० 262 4. आचारांग वृत्ति पत्रांक 387 5. (क) आचारांग वृत्ति 387 (ख) दशवै० अ०७ गा०५१ से 20 तक तुलना के लिए देखें 6. होलादिशब्दास्तत्तदेश-प्रसिद्धितो नैष्ठादि वाचकाः / दशबै० हारि० टीका पत्र 215 7. दशव० 7/14 में, तथा सूत्रकृतांग (1/6/27) में- 'होलावायं सहीवाय गोयावायं च नो वदे' आदि सूत्रों द्वारा सूचित किया गया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org