________________ 218 आचारांग सूत्र---द्वितीय श्रु तस्कन्ध 527. संयमशील साधु या साध्वी किसी पुरुष को आमंत्रित कर रहे हो, और आमंत्रित करने पर भी वह न सुने तो उसे इस प्रकार सम्बोधित करे--हे अमुक भाई ! हे आयुष्मन् ! हे आयुष्मानो ! ओ श्रावकजी ! हे उपासक ! धार्मिक ! या हे धर्मप्रिय ! इस प्रकार की निरवद्य यावत् भूतोपघातरहित भाषा विचारपूर्वक बोले ! 528. साधु या साध्वी किसी महिला को बुला रहे हों, बहुत आवाज देने पर भी वह न सुने तो उसे ऐसे नीच सम्बोधनों से सम्बोधित न करे--अरी होली (मूर्खे) ! अरी गोली ! अरी वृषली (शूद्र) ! हे कुपक्षे (नीन्द्यजातीये) ! अरी घटदासी ! कुत्ती ! अरी चोरटी ! हे गुप्तचरी ! अरी मायाविनी (धूर्ते) ! अरी झूठी ! ऐसी ही तू है और ऐसे ही तेरे माता-पिता हैं !'' विचारशील साधु-साध्वी इस प्रकार की सावध, सक्रिय यावत् जीवोपघातिनी भाषा न बोलें। 526. साधु या साध्वी किसी महिला को आमंत्रित कर रह हों, बहुत बुलाने पर भी वह न सुने तो उसे इस प्रकार सम्बोधित करे-आयुष्मतो ! बहन (भगिनी) ! भवती (अजी, आप या मुखियाइन), भगवति ! श्राविके ! उपासिके ! धार्मिके ! धर्मप्रिये ! इस प्रकार की निरवद्य यावत् जीवोपघात-रहित भाषा विचारपूर्वक बोले / विवेचन--भाषा चतुष्टय उसके विधि-निषेध और प्रयोग-पिछले आठ सूत्रों में भाषा के चार प्रकार, उनके प्ररूपक, उनका स्वरूप, उनकी उत्पत्ति, चारों में से भाषणीय भाषा-द्वय किन्तु इन दोनों के भी सावध, सक्रिय, कर्कश, निष्ठुर, कठोर, कटु, छेदन-भेदन-परिताप-उपद्रवकारी, आस्रवजनक, जीवोपघातक होने पर प्रयोग का निषेध और इनसे विपरीत असावद्य यावत् जीवों के लिए अविघातक भाषा के प्रयोग का विधान तथा नर-नारी को सम्बोधित करने में निषिद्ध और विहित भाषा का निरुपण किया गया है। संक्षेप में, शास्त्रकार ने इन 7 सूत्रों में अनाचारणीय आचरणीय भाषा का समग्र विवेक बता दिया है।' भाषा अभाषा ? 'पुष्वं भासा अभासा'"इत्यादि पाठ की व्याख्या वृत्तिकार इसप्रकार करते हैं-भाषावर्गणा के पुद्गल (द्रव्य) वाग्योग से निकलने से पूर्व भाषा नहीं कहलाते, बल्कि अभाषा रूप ही होते हैं, वाग्योग से भाषावर्गणा के पुद्गल जब निकल रहे हों, तभी वह भाषा बनती है, और कहलाती है। किन्तु भाषणोत्तरकाल में यानी भाषा (बोलने) का समय व्यतीत हो जाने पर शब्दों का प्रध्वंश हो जाने से बोली गई भाषा अभाषा हो जाती है।-'भाषा-जो उत्पन्न हुई है,"---भाषाजात शब्द का ऐसा अर्थ मानने पर ही इस सूत्र की संगति बैठती है। इस सूत्र से शब्द के प्रागभाव और प्रध्वंसाभाव सूचित किए गये हैं, तथा यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि जब भाषा बोली जाएगी, यानी जब भी भाषा उत्पन्न होगी, तभी वह भाषा कहलाएगी। जो भाषा अभी उत्पन्न नहीं हुई है, या उत्पन्न होकर नष्ट हो चुकी है, वह भाषा नहीं 1. (क) आचारांग वत्ति पत्रांक 387, 388 के आधार पर (ख) तुलना के लिए देखें-दशवकालिक अ०७, गा.१, 2, 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org