________________ 108 आचासंग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध मती तत्थ ण माहिया / ओए अप्पतिट्ठाणस्स खेत्तण्णे। से ण दोहे, ण हस्से, ण बट्टे, ण तंसे, ण चउरंसे, ण परिमंडले, न किण्हे, ण णोले, ण लोहिते, ण हालिद्दे, ण सुश्किले, ण सुभिगंधे, ण दुन्भिगंधे, ण तित्त, ण कडुए, ण कसाए, ण अंबिले, ण महुरे, ण कक्खडे, ण मउए, ण गरुए, ण लहुए, ण सीए, ण उण्हे, ण णिद्ध, ण लुक्खे, ण काऊ' ण रहे, ण संगे, ण इत्थी', ण पुरिसे, ण अण्णहा / परिगणे, सण्णे। उवमा ण विज्जति / अरूवी सत्ता। अपदस्स पदं स्थि। से ण सद्दे, ण रूवे, ण रसे, ण फासे, इच्चेतावंति ति बेमि / // लोगसारो पंचमं अज्झयणं समत्तो।। 176. इस प्रकार वह जीवों की गति-प्रागति (संसार भ्रमण) के कारणों का परिज्ञान करके व्याख्यात-रत (मोक्ष-मार्ग में स्थित) मुनि जन्म-मरण के वृत्त (चक्राकार) मार्ग को पार कर जाता है (अतिक्रमण कर देता है)। (उस मुक्तात्मा का स्वरूप या अवस्था बताने के लिए) सभी स्वर लौट जाते हैं-(परमात्मा का स्वरूप शब्दों के द्वारा कहा नहीं जा सकता), वहाँ कोई तर्क नहीं है (तर्क द्वारा गम्य नहीं है)। वहाँ मति (मनन रूप) भी प्रवेश नहीं कर पाती, वह (बुद्धि द्वारा ग्राह्य नहीं है)। वहाँ (मोक्ष में) वह समस्त कर्ममल से रहित प्रोजरूप (ज्योतिस्वरूप) शरीर रूप प्रतिष्ठान--प्राधार से रहित (अशरीरी) और क्षेत्रज्ञ (आत्मा) ही है। वह (परमात्मा या शुद्ध प्रात्मा) न दीर्घ है, न ह्रस्व है, न वृत्त है, न त्रिकोण है, न चतुष्कोण है और न परिमण्डल है। वह न कृष्ण (काला) है, न नीला है, न लाल.है, न पीला है और न शुक्ल (श्वेत) है। न वह सुगन्ध----(युक्त) है और न दुर्गन्ध-(युक्त) है। वह न तिक्त (तीखा) है, न कड़वा है, न कसैला है, न खट्टा है 1. 'काऊ' का अर्थ चूर्णिकार करते हैं-'काउग्गहणेणं लेस्साओ गहिताओ—'काऊ' शब्द से यहाँ लेश्या ____ का ग्रहण किया गया है / 2. यहाँ चूणि में पाठान्तर है—ण इस्थिवेदगो, ण णपु सगवेदगो ग अण्णहत्ति / अर्थात्-वह (परमात्मा) न स्त्रीवेदी है, न न सकवेदी है और न ही अन्य है (यानी पुरुषवेदी हैं)। 3. इच्चेतावति की चूर्णिसम्मन्न व्याख्या इस प्रकार है- "इति परिसमत्तीए, एतावंति त्ति तस्स परियाता, एतावति य परियायविसेसा इति / " इति समाप्ति अर्थ में है। इतने ही उसके पर्याय विशेष हैं। उपनिषद् में भी 'नेति नेति' कह कर परमात्मा की परिभाषा के विषय में मौन अंगीकार कर लिया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org