________________ पंचम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 176 189 और न मोठा (मधुर) है, वह न कर्कश है, न मृदु (कोमल) है, न गुरु (भारी) है, न लघु (हलका) है, न ठण्डा है, न गर्म है, न चिकना है, और न रूखा है। वह (मुक्तात्मा) कायवान नहीं है। वह जन्मधर्मा नहीं (अजन्मा) है, वह संगरहित--- (असंग-निर्लेप) है, वह न स्त्री है, न पुरुष है और न नसक है। वह (मुक्तात्मा) परिज्ञ है, संज्ञ (सामान्य रूप से सभी पदार्थ सम्यक् जानता) है। वह सर्वतः चैतन्यमय-ज्ञानधन है। (उसका बोध कराने के लिए) कोई उपमा नहीं है। वह अरूपी (अमूर्त) सत्ता है। वह पदातीत (अपद) है, उसका बोध कराने के लिए कोई पद नहीं है। वह न शब्द है, न रूप है, न गन्ध है, न रस है और न स्पर्श है। बस, इतना ही है। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-परमात्मा (मुक्तात्मा) का स्वरूप सूत्र 176 में विशदरूप से बताया गया हैं, परन्तु वहाँ उसे जगत में पुनः लौट आने वाला या संसार की रचना करने वाला (जगत्कर्ता) नहीं बताया गया है। परमात्मा जब समस्त कर्मों से रहित हो जाता है, तो संसार में लौटकर पुनः कर्मबन्धन में पड़ने के लिए क्यों आएगा? योगदर्शन में मुक्त-आत्मा (ईश्वर) का स्वरूप इस प्रकार बताया है क्लेश-कर्म-विपाकाशपरपरामृष्टः पुरुषविशेषः ईश्वरः।" -क्लेश, कर्म, विपाक और प्राशयों (वासनाओं) से अछूता जो विशिष्ट पुरुष-- (आत्मा) है, वही ईश्वर है / ___ इसीलिए यहाँ कहा-'अध्चेति जातिमरणस्स बट्टमग्ग'-वह जन्म-मरण के वृत्तमार्ग (चक्राकार) मार्ग का अतिक्रमण कर देता है। // छठा उद्देशक समाप्त // // लोकसार पंचम अध्ययन समाप्त // 1. आचा० शोला० टोका पत्रांक 208 / 2. योगदर्शन 1124 // विशेष--वैदिक ग्रन्थों में इसी से मिलता-जुलता ब्रह्म या परमात्मा का स्वरूप मिलता है, देखिए "अशम्बमस्पर्शमरूपमव्ययं तथाऽरसं नित्यमगन्धवच्च यत् / अनाघनन्ते महतः परं ध्रवं. निचाग्य तन्मृत्युमुखतु प्रमुच्यते // ' -फेठोपनिषद् 113 / 15 'यत्तवदृश्यमब्राह्ममवर्णमचमुधोत्रं तदपाणिपादम् / / नित्यं वि सर्वगतं सुसूक्ष्म तदव्ययं यदभूत योनि नश्यन्ति धीराः / -मुण्डकोपनिषद् 6 / 116 'यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह। . आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान्, न बिभेति कदाचन / " . तैत्तिरीय उपनिषद् 2 / 4 / 1 ते होवा घेतदवेतवक्षरं गार्गि ! ब्राह्मणा अभिवदन्त्यस्थलमनवहस्वमदोघमिलोहितमस्नेहमच्छायमतमोऽवाप्वनाकाशमसंगमरसमगन्धमचक्षुष्कमश्रोत्रमवागमनेऽतेजस्कमप्राणाऽमुखममात्रमनन्तरमबाह्य न तदश्नाति किचन, न तदश्नाति कश्चन / -बृहदारण्यक 31818 / 4 / 5 / 14 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org