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________________ 205 तृतीय अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 515-16 जाणं वा णो जाणं ति वएज्जा--"जानता हुमा भी मैं नहीं जानता।" इस प्रकार (उपेक्षाभाव) मे कहे / साधु को सत्यमहाबत भी रखना है और अहिंसा-महाबत भी; परन्तु अहिंसा से विरहित सत्य, सत्य नहीं होता, किन्तु अहिंसा से युक्त सत्य ही सद्भ्योहितं सत्यम्-प्राणिमात्र के लिए हितकर सत्य वास्तविक सत्य कहलाता है। इसलिए साधु जानता हुआ भी उन विशिष्ट पशुओं का नाम लेकर न कहे, बल्कि सामान्य रूप से और उपेक्षाभाव से कहे कि "मैं नहीं जानता।" वास्तव में साधु सब प्राणियों के विषय में जानता भी नहीं, इसलिए सामान्य रूप से "मैं नहीं जानता।” कहने में उसका सत्य भी भंग नहीं होता और अहिंसाबत भी सुरक्षित रहेगा।' जाणं वा णो....'--इसका एक वैकल्पिक अर्थ यह भी है कि जानता हुआ भी यह न कहे कि "मैं जानता हूं।" 'जानता हुआ भी ऐसा कहे कि मैं नहीं जानता' यह अपवाद मार्ग है, 'जानता हुआ भी मैं, जानता हूँ ऐसा न कहें यह उत्सर्ग मार्ग है। अथवा अन्य प्रकार से कोई ऐसा उत्तर दे कि-प्रश्नकर्ता क्रुद्ध भी न हो एवं मुनि का सत्य एवं अहिंसा महाव्रत भी खण्डित न हो। प्राचीन अनुश्रुति के अनुसार ऐसा उत्तर दिया जाता है--"जो (मन) जानता है, वह देखता नहीं, जो (चक्षु) देखता है, वह बोलता नहीं, जो (जिह्वा) बोलता है, वह न जानता है, न देखता है / फिर क्या कहा जाय?" ऐसे उत्तर से सम्भव है प्रश्नकर्ता उकताकर मुनि को विक्षिप्त आदि समझकर आगे चला जाय, और वह समस्या हल हो जाय। सू० 512, 513 एवं 514 की बातें पहले सूत्र 500 एवं 502 में आ चुकी हैं, उन्हीं बातों को पुनः ईर्या और भाषा के सन्दर्भ में यहाँ दोहराया गया है / साधु को यहाँ मौन रहने से काम न चलता हो तो जानने पर भी नहीं जानने का कथन करने का निर्देश किया है। उसका कारण भी पहले बताया जा चुका है।' 515. से भिक्खू वा 2 गामाणुगामं दूइज्जमाणे अंतरा से गोणं वियालं पडिपहे पेहाए जाव' चित्ताचेल्लडयं वियालं पडिपहे पेहाए णो तेसि भीतो उम्मग्गेणं गच्छेज्जा, गो मग्गातो भग्गं संकज्जा , गो गहणं वा वणं वा दुग्गं वा अणुपविसेज्जा, णो रुक्खंसि दुरुहेज्जा, गो 1. (अ) टीका पत्र 383 के आधार पर (आ) आचारांग चूणि मूल पाठ टिप्पण पृ० 185-186 / 2. आचारांग चूणि मूलपाठ एवं वृत्ति पत्रांक 383 के आधार पर 3. यहाँ जाव शब्द से 'गोणं क्यिालं पडिपह पेहाए' से लेकर 'चित्ताचेल्लड्यं' तक का समग्र पाठ सूत्र 354 के अनुसार संकेतित है। 4. 'चित्ताचेल्लाय' के स्थान पर पाठान्तर हैं-"चिताचिल्लडयं चित्ताचिल्लडं, आदि। वृत्तिकार इसका अर्थ करते हैं--- चित्रकं तदपत्यं वा व्यालं रं-दृष्टवा"..-चीता या उसका बच्चा जो ऋर (व्याल) है, उसे देखकर / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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