________________ पंचम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 163 171 (2) 'तम्मुत्तीए'---गुरु की आज्ञा में ही तन्मय हो जाय। (3) 'तप्पुरवकारे'--गुरु के आदेश को सदा अपने सामने-आगे रखे या शिरोधार्य करे। (4) 'तस्सणे'-गुरु द्वारा उपदिष्ट विचारों की स्मृति में एकरस हो जाय / (5) 'सम्गिवेसगे--गुरु के चिन्तन में ही स्वयं को निविष्ट कर दे, दत्तचित्त हो जाय / 'से अभिक्कममाणे'-पादि पदों का अर्थ वृत्तिकार ने संघाश्रित साधु के विशेषण मान कर किया है। जबकि किसी-किसी विवेचक ने इन पदों को 'पागे' का द्वितीयान्त बहुवचनान्त विशेषण मानकर अर्थ किया है। दोनों ही अर्थ हो सकते हैं / कर्म का बं और मुक्ति 163. एगया गुणसमितस्स रीयतो कायसंफासमणुचिण्णा एगतिया पाणा उद्दायंति, इहलोगवेदणवेज्जावडिय / जं आउट्टिकयं कम्मतं परिणाय विवेगमेति / एवं से अप्पमादेण विवेगं किट्टति बेक्वी। 163. किसी समय (यतनापूर्वक) प्रवृत्ति करते हुए गुणसमित (गुणयुक्त) अप्रमादी (सातवें से तेरहवें गुणस्थानवर्ती) मुनि के शरीर का संस्पर्श पाकर कुछ (सम्पातिम मादि) प्राणी परिताप पाते हैं। कुछ प्राणी ग्लानि पाते हैं अथवा कुछ प्राणी मर जाते हैं, (अथवा विधिपूर्वक प्रवृत्ति करते हुए प्रमत्त-षष्ठगुणस्थानवर्ती मुनि के कायस्पर्श से न चाहते हुए भी कोई प्राणी परितप्त हो जाए या मर जाए) तो उसके इस जन्म में वेदन करने (भोगने) योग्य कर्म का बन्ध हो जाता है। (किन्तु उस षष्ठगुणस्थानवर्ती प्रमत्त मुनि के द्वारा) आकुट्टि से (प्रागमोक्त विधिरहित-अविधिपूर्वक-) प्रवृत्ति करते हुए जो कर्मबन्ध होता है, उसका (क्षय) ज्ञपरिज्ञा से जानकर (–परिज्ञात कर) दस प्रकार के प्रायश्चित्त में से किसी प्रायश्चित्त से करें। इस प्रकार उसका (प्रमादवश किए हुए साम्परायिक कर्मबन्ध का) विलय (क्षय) अप्रमाद (से यथोचित्त प्रायश्चित्त से) होता है, ऐसा आगमवेत्ता शास्त्रकार कहते हैं। विवेचन--प्रस्तुत सूत्र में ईर्यासमितिपूर्वक गमन करने वाले साधक के निमित्त से होने वाले अाकस्मिक जीव-वध के विषय में चिन्तन किया गया है / 1. प्राचा. शोला.. टीका पत्रांक 196 / 2. वेज्जावडियं' के बदले चूणि में 'वेयावडिय' पाठ मानकर अर्थ किया गया है--"तवो वा छेदो वा करेति बेयावडियं, कम्म खवणीयं विदारणीयं वावडियं ।"---अर्थात्-तप, छेद या बयावृत्त्य (सेवा) (जिसके वेदन-भोगने के लिए) करता है, वह वैयावृत्त्यिक है, जो कम-विदारणीय क्षय करने योग्य है, वह भी वेदापतित हैं। 3. 'आउटिकतं परिणाविधेगमेति' यह पाठान्तर चूणि में है / अर्थ होता है जो आकुट्टिकृत है, उसे परिज्ञात करके विवेक नामक प्रायश्चित्त प्राप्त करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org