SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 222
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 172 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध एक समान प्राणिवध होने पर भी कर्मबन्ध एक-सा नहीं होता, वह होता है-~-कषायों की तीव्रता-मन्दता या परिणामों की धारा के अनुरूप / कायस्पर्श से किसी प्राणी का वध या उसे परिताप हो जाने पर प्रस्तुत सूत्र द्वारा वृत्तिकार ने उस हिंसा के पांच परिणाम सूचित किये हैं-- (1) शैलेशी (निष्कम्प अयोगी) अवस्था-प्राप्त मुनि के द्वारा प्राणी का प्राण-वियोग होने पर भी बन्ध के उपादान कारण-योग-का अभाव होने से कर्मबन्ध नहीं होता। (2) उपशान्तमोह, क्षीणमोह और सयोगी केवली (वीतराग) के स्थिति-निमित्तक कषाय न होने से सिर्फ दो समय की स्थिति वाला कर्मबन्ध होता है। (3) अप्रमत्त (छमस्थ छठे से दशवें गुणस्थानवर्ती) साधु के जघन्यतः अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्टतः पाठ मुहूर्त की स्थितिवाला कर्मबन्ध होता है / (4) विधिपूर्व प्रवृत्ति करते हुए प्रमत्त साधु (षष्ठगुणस्थानवर्ती) से यदि अनाकुट्टिवश (अकामत:) किसी प्राणी का वध हो जाता है तो उसके जघन्यतः अन्तमुहूत और उत्कृष्टतः 8 वर्ष की स्थिति का कर्मबन्ध होता है, जिसे वह उसी भव (जीवन) में वेदन करके क्षीण कर देता है। (5) आगमोक्त कारण के बिना पाकुट्टिवश यदि किसी प्राणी की हिंसा हो जाती है, तो उससे जनित कर्मबन्ध को वह सम्यक प्रकार से परिज्ञात करके प्रायश्चित्त' द्वारा ही समाप्त कर सकता है / ब्रह्मचर्य-विवेक 164. से पभूतदंसी पभूतपरिणाणे उवसंते समिए सहिते सदा जते द? विप्पडिवेदेति अप्पाणं-किमेस जणो करिस्सति ? एस से परमारामो जाओ लोगंसि इत्थीओ। मुणिणा हु एतं पवेदितं। उम्बाधिज्जमाणे गामधम्मेहि अवि णिब्बलासए, अवि ओमोदरियं कुज्जा, अवि उड्ढं ठाणं ठाएज्जा, अवि गामाणुगामं दूइज्जेज्जा, अवि आहारं वोच्छिदेज्जा, अवि चए इत्थीसु मणं। पुष्वं दंडा पच्छा फासा, पुटवं फासा पच्छा दंडा / इच्चेते कलहासंगकरा भवंति / पडिलेहाए आगमेत्ता आणवेज्ज अणासेवणाए ति बेमि / 1. आगमों में दस प्रकार के प्रायश्चित्त बताये गये हैं--(१) आलोचनाह, (2) प्रतिक्रमणाह, (3) तदु भयाह, (4) विवेकाहं, (5) ब्युत्सहिं, (6) तपार्ह, (7) छेदाह, (8) मूलाई, (9) अनवस्थाध्याह और (10) पाराञ्चिकाई / स्था० 411 / 263 तथा दशवै० 11 हारिभद्रीय टीका 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 197 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy