________________ 17. आचारसंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध * अव्यक्त साधु अनुभव में और आचार के अभ्यास में कच्चा होने से अप्रिय घटनाक्रम के समय ज्ञाता द्रष्टा नहीं रह सकता।' उन विघ्न-बाधाओं से वह उच्छखल और स्वच्छन्द (एकाकी) साधु सफतापूर्वक निपट नहीं सकता। क्योंकि बाधाओं, उपसों को सहन करने की क्षमता और कला--विनय तथा विवेक से पाती है। बाधाओं को सहन करने से क्या लाभ है ? उस पर विचार करने के लिए गम्भीर विचार व ज्ञान की अपेक्षा रहती है / अव्यक्त साधु में यह सब नहीं होता। स्थानांग सूत्र (81594) में बताया है--एकाकी विचरने वाला साधु निम्न आठ गुणों से युक्त होना चाहिए--- (1) दृढ श्रद्धावान्, (2) सत्पुरुषार्थी, (3) मेधावी, (4) बहुश्रुत, (5) शक्तिमान्, (6) अल्प उपधि वाला, (7) धृतिमान् तथा (8) वीर्य-सम्पन्न / ... अव्यक्त साधु में ये गुण नहीं होते अतः उसका एकाकीविहार नितांत अहितकर बताया है। सहिष्टीठए तम्मुत्तीए'-~ये विशेषण साधक की ईर्या-समिति के भी द्योतक हैं / चलते समय चलने में ही दृष्टि रखे, पथ पर नजर टिकाये, गति में ही बुद्धि को नियोजित करके चले / यहाँ पर ईर्यासमिति का प्रसंग भी है / चूर्णिकार ने इसे प्राचार्य (गुरु) आदि तथा ईर्या दोनों से सम्बन्ध माना है जबकि टीकाकार ने इन विशेषणों को प्राचार्य के साथ जोड़ा है। इन विशेषणों से प्राचार्य की प्राराधना-उपासना के पाँच प्रकार सूचित होते हैं-- ... (1) 'हिट्ठीए'--प्राचार्य ने जो दृष्टि, विचार दिया है, शिष्य अपना आग्रह त्यागकर गुरु-प्रदत्त दृष्टि से ही चिन्तन करे।। एगागिअस्स बोसा, इत्यो साणे तहेव पउिभीए / भिक्खविसोहि महत्वय तम्हा सविइज्जए गमगं // 2 // 1. परिणाम का चिन्तन करने की क्षमता न होने से वह अद्रष्टा माना गया है। 2. जह सायरंमि मीणा संखोहं साअरस्स असहसा। णिति तओ सुहकामी जिग्गममिता विणसति // 1 // एवं गच्छसमुद्दे सारणकोई हि चोहा संता। निति तो सुहकामी मीणा व जहा विणस्संति / 2 / गच्छमि केई पुरिसा सउणी जह पंचरंतरणिरुद्धा। सारण-वारण-बोइस * पासत्यगया परिहरंति // 3 // जहा विया पोयमपक्खजायं सवासया पविउमणं मणाम / समचाइया तरणमपत्तजाय, लंकादि अव्वत्तगर्म हरेज्जा // 4 // - प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 194 -~-जैसे समुद्र की तरंगों के प्रहार से क्षुब्ध होकर मछली प्रादि सुख की लालसा से बाहर निकलकर दुखी होती है / इसी प्रकार गुरुजनों की सारणा-वारणादि से क्षुब्ध होकर जो श्रमण बाहर चले जाते हैं, वे विनाश को प्राप्त हो जाते हैं-१-२ / -जैसे शुक-मैना आदि पक्षी पिंजरे में बँधे रहकर सुरक्षित रहते हैं। वैसे ही श्रमण गच्छ में पार्श्वस्थ आदि के प्रहारों से सुरक्षित रहते हैं-३ / -~-जैसे नवजात पक्ष-रहित पक्षी आदि को ढंक प्रादि पक्षियों से भय रहता है, वैसे ही भव्यक्त-अगीतार्थ को अभ्यतीथिकों का भय बना रहता है / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org