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________________ पंचम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 162 161 का खतरा है, कुत्तों आदि का भी उपसर्ग सम्भव है / धर्म-विद्वषियों द्वारा उसे बहकाकर धर्मभ्रष्ट किये जाने की भी सम्भावना रहती है।' इसी सूत्र में आगे बताया गया है कि अव्यक्त साधु एकाकी विचरण क्यों करता है ? इससे क्या हानियाँ हैं ? किसी अव्यक्त साधु के द्वारा संयम में स्खलना (प्रमाद) हो जाने पर गुरु प्रादि उसे उपालम्भ देते हैं- कठोर वचन कहते हैं, तब वह क्रोध से भड़क उठता है, प्रतिवाद करता है-- "इतने साधुनों के बीच में मुझे क्यों तिरस्कृत किया गया? क्या मैं अकेला ही ऐसा हूँ ? दूसरे साधु भी तो ऐसा प्रमाद करते हैं ? मुझ पर ही क्यों बरस रहे हैं ? आपके गच्छ (संघ) में रहना ही बेकार है / " यों क्रोधान्धकार से दृष्टि आच्छन्न होने पर महामोहोदयवश वह अव्यक्त, अपुष्टधर्मा, अपरिपक्व साधु गच्छ से निकलकर उसी तरह नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है, जैसे समुद्र से निकलकर मछली विनष्ट हो जाती है। अथवा क्रिया या प्रवचनपटुता, व्यावहारिक कुशलता आदि के मद में छके हुए अभिमानी अव्यक्त साधु की गच्छ में कोई जरा-सी प्रशंसा करता है तो वह फूल उठता है और कोई जरा-सा कुछ कठोर शब्द कह देता है, या प्रशंसा नहीं करता या दूसरों की प्रशंसा या प्रसिद्धि होते देखता है तो भड़क कर गच्छ (संघ) से निकल कर अकेला घूमता रहता है। अपने अभिमानी स्वभाव के कारण वह अव्यक्त साधु जगह-जगह झगड़ता फिरता है, मन में संक्लेश पाता है, प्रसिद्धि के लिए मारामारा फिरता है, अज्ञजनों से प्रशंसा पाकर, उनके चक्कर में आकर अपना शुद्ध प्राचार-विचारविहार छोड़ बैठता है। निष्कर्ष यह है कि गुरु आदि का नियन्त्रण न रहने के कारण अव्यक्त साधु का एकाकी विचरण बहुत ही हानिजनक है।' गुरु के सान्निध्य में गच्छ में रहने से गुरु के नियन्त्रण में अव्यक्त साधु को क्रोध के अवसर पर बोध मिलता है "आक ष्टेन मतिमता तत्वान्वेिषले मतिः कार्या / यदि सत्यं कः कोपः ? स्यादनृतं किं नु कोपेन !"1 // "अपकारिणि कोपश्चेत् कोपे कोपः कथं न ते ? धर्मार्थकाममोक्षाणां, प्रसह्य परिपन्पिनि' // 2 // ---बुद्धिमान साधु को क्रोध आने पर वास्तविकता के अन्वेषण में अपनी बुद्धि लगानी चाहिए कि यदि (दूसरों की कही हुई बात) सच्ची है तो मुझे कोध क्यों करना चाहिए, यदि झूठी है तो क्रोध करने से क्या लाभ ? 11 / यदि अपकारी के प्रति क्रोध करना ही है तो अपने वास्तविक अपकारी क्रोध के प्रति ही क्रोध क्यों नहीं करते, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, चारों पुरुषार्थों में जबर्दस्त बाधक--शत्रु बना हुआ है ? // 2 // 1. (क) प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 194 / (ख) "अक्कोस-हरण-मारण धम्मभंसाण बालसुलभाणं / लाभ मण्णइ धोरो जहत्तरष्ण अमावमि // " 2. (क) आचा० शीला० टीका पत्रांक 194-195 / (ख) साहम्मिएहि सम्मुज्जएहि एगागिओम जो विहरे / आयंकपउरयाए छक्कायवहमि आवउड // 1 // Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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