________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 561-67 247 पहल मन में विचार करके उस गृहस्थ से कहे-~-'आयुष्मन् गृहस्थ अथवा बहन ! मेरे लिए इस प्रकार से संकेतपूर्वक वचन स्वीकार करना कल्पनीय नहीं है। अगर मुझे देना चाहते/चाहती हो तो इसी समय दे दो।' 563 साधु के इस प्रकार कहने पर यदि वह गृहस्थ धर के किसी सदस्य (बहन आदि) को (बुलाकर) यों कहे कि "आयुष्मन् या बहन ! वह वस्त्र लाओ, हम उसे श्रमण को देंगे। हम तो अपने निजी प्रयोजन के लिए बाद में भी प्राणी, भूत, जीव और सत्वों का समारम्भ करके और उद्देश्य करके यावत् और वस्त्र बनवा लेंगे।” इस प्रकार का वार्तालाप सुन कर उस पर विचार करके उसप्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय जान कर ग्रहण न करे। 564. कदाचित् गृहस्वामी घर के किसी व्यक्ति से यों कहे कि "आयुष्मन् अथवा बहन ! वह वस्त्र लाओ, तो हम उसे स्नानीय पदार्थ से, चन्दन आदि उद्वर्तन द्रव्य से लोध से, वर्ण से, चूर्ण से या पद्म आदि सुगन्धित पदार्थों से, एक बार या बार-बार घिसकर श्रमण को देंगे।" इस प्रकार का कथन सुनकर एवं उस पर विचार करके वह साधु पहले से ही कह दे-आयुष्मन् गृहस्थ ! या आयुष्मती बहन! तुम इस वस्त्र को स्नानीय पदार्थ से यावत् पद्म आदि सुगन्धित द्रव्यों से आघर्षण या प्रघर्षण मत करो। यदि मुझे वह वस्त्र देना चाहते चाहती हो तो ऐसे ही दे दो। साधु के द्वारा इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ स्नानीय सुगन्धित द्रव्यों से एकबार या बार-बार घिसकर उस वस्त्र को देने लगे तो उस प्रकार के वस्त्र को अप्रासुक एवं अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे। 565. कदाचित् गृहपति घर के किसी सदस्य से कहे कि “आयुष्मन् ! या वहन ! उस वस्त्र को लाओ, हम उसे प्रासुक शीतल जल से या प्रासुक उष्ण जल से एक बार या कई बार धोकर श्रमण को देंगे।" इस प्रकार की बात सुनकर एवं उस पर विचार करके वह पहले ही दाता से कह दे---"आयुष्मन् गृहस्थ (भाई) ! या बहन ! इस वस्त्र को तुम प्रासक शीतल जल से या प्रासुक उष्ण जल से एक बार या कई बार मत धोओ। यदि मुझे इसे देना चाहते हो तो ऐसे ही दे दो।" इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ उस वस्त्र को ठंडे या गर्म जल से एक बार या कई बार धोकर साधु को देने लगे तो वह उस प्रकार के वस्त्र को अप्रामुक एवं अनेषणीय जानकर मिलने पर भी ग्रहण न करे / 566. यदि वह गृहस्थ अपने घर के किसी व्यक्ति से यों कहें कि आयुष्मन् ! या बहन! उस वस्त्र को लाओ, हम उससे में कन्द यावत् हरी (वनस्पति) निकालकर (विशुद्ध करके) साधु को देंगे। इस प्रकार की बात सुनकर, उस पर विचार करके वह पहले ही दाता से कह दें-"आयुष्मन् गृहस्थ ! या बहन ! इस वस्त्र में से कन्द यावत् हरी मत निकालो (विशुद्ध मत करो)। "मेरेलिए इस प्रकार का वस्त्र ग्रहण करना कल्पनीय नहीं है / 567. साधु के द्वारा इस प्रकार कहने पर भी वह गृहस्थ कंद यावत् हरी वस्तु को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org