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________________ 246 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध निघोसं सोच्चा निसम्म से पुम्बामेव आलोएज्जा-आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, मा एतं तुमं वत्थं सिणाणेण वा जाव पघंसाहि वा, अभिकखसि मे दातुं एमेव वलयाहि / से सेवं वदंतस्स परो सिणाणेण वा जाव पचंसित्ता [वा?] दलएज्जा / तहप्पगारं वत्थं अफासुर्य जाव' गो पडिगाहेज्जा। 565. से णं परो णेत्ता वदेज्जा-आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, आहर एयं वत्थं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण वा उच्छोलेता' वापधोवेत्ता वा समणस्स णं दासामो। एयप्पगारं निग्घोस, तहेव, नवरं मा एयं तुमं वत्थं सीओदगवियडेण वा उसिणोदगवियडेण दा उच्छोलेहि वा पधोवेहि वा / अभिकखसि मे दातुं सेसं तहेव जाव णो पडिगाहेज्जा। 566. से णं परो णेत्ता वदेज्जा-आउसो ! ति, वा भइणी ! ति वा, आहरेतं वत्थं कंदाणि वा जाव हरियाणि वा विसोधेत्ता समणस्स णं दासामो। एतप्पगारं णिग्योसं सोच्चा निसम्म जाव' भइणी ! ति वा, मा एताणि तुमं कंदाणि वा जाव विसोहेहि. णो खलु मे कम्पति एयप्पगारे वत्थे पडिगाहित्तए। 567. से सेवं वदंतस्स परो कंदाणि वा जाव विसोहेता दलएज्जा। तहप्पगारं वत्थ अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 561. कदाचित् इन (पूर्वोक्त) वस्त्र-एषणाओं से वस्त्र की गवेषणा करने वाले साधु को कोई गृहस्थ कहे कि--आयुष्मन् श्रमण ! तुम इस समय जाओ, एक मास, या दस या पांच रात के बाद अथवा कल या परसों आना, तब हम तुम्हें एक वस्त्र देंगे।' इस प्रकार का कथन सुनकर हृदय में धारण करके वह साधु विचार कर पहले ही कह दे---"आयुष्मन् गृहस्थ ! अथवा बहन ! मेरे लिए इस प्रकार का संकेतपूर्वक वचन स्वीकार करना कल्पनीय नहीं है। अगर मुझे वस्त्र देना चाहते हो (दे सकते हो) तो अभी दे दो।" 562. उस साधु के इस प्रकार कहने पर भी यदि वह गृहस्थ यों कहे कि--आयुष्मन् श्रमण ! अभी तुम जाओ। थोड़ी देर बाद आना, हम तुम्हें एक वस्त्र दे देंगे। इस पर वह 1. यहाँ 'जाव' शब्द से 'अफासयं' से लेकर पडिग्याहेज्जा' तक का सारा पाठ सूत्र 324 के अनुसार समझना चाहिए। 2. 'उच्छोलेसा पधोवेत्ता' के बदले पाठान्तर हैं- उच्छालेत्ता पच्छालेता, उच्छुलेज्ज वा पहोएज्ज वा / 3. यहाँ 'जाव' शब्द से सू० 564 के अनुसार शेष पाठ समझें। 4. विसोधेत्ता का तात्पर्य वत्तिकार लिखते हैं----'कंदादीनि वस्त्रादपनीय'-अर्थात- कंद आदि जो वस्त्र में रखें हैं, उन्हें निकालकर साफ करके। 5. यहाँ जाव शब्द से 'निसम्म' से 'भइणी' तक का पाठ सू० 564 के अनुसार समझें। 6. जाव शब्द से यहाँ 'कंदाणि' से 'हरियाणि' तक का सारा पाठ सू० 417 के अनुसार समझें। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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