________________ पंचम अध्ययन : प्रथम उद्देशक : सूत्र 561-67 245 जो साधु जिस प्रकार की प्रतिज्ञा करता है, वह अपनी प्रतिज्ञा के अनुसार वस्त्र मिले, तो ग्रहण करता है, अन्यथा नहीं / / परन्तु पिण्डैषणा अध्ययन में उक्त प्रतिज्ञापालन से प्रादुर्भूत अहंकार के विसर्जन की बात यहाँ भी शास्त्रकार ने सूत्र 560 के द्वारा अभिव्यक्त की है। वस्त्रैषणा-प्रतिमापालक साधु स्वयं को उत्कृष्ट और दूसरे साधुओं का निकृष्ट न माने। वह सभी प्रकार के प्रतिमापालक साधुओं को जिनाज्ञानुवर्ती तथा समान माने / समाधिभाव में रहे।' अनेषणीय वस्त्र-ग्रहण-निषेध ___561. सिया णं एताए एसणाए एसमाणं परो वदेज्जा-आउसंतो समणा ! एज्जाहि तुमं मासेण वा दसरातेण वा पंचरातेण वा सुते' वा सुततरे वा, तो ते वयं आउसो ! अण्णतरं वत्थं दासामो / एतप्पगारं णिग्योसं सोच्चा निसम्म से पुवामेव आलोएज्जा-आउसो ! ति वा, भगिणी ! ति वा, णो खलु मे कप्पति एतप्पगारे संगारे पडिसुणेत्तए, अभिकंखसि मे दाउं इदाणिमेव दलयाहि। 562. से णेवं वदंतं परो वदेज्जा-आउसंतो समणा! अणुगच्छाहि, तो ते वयं अण्णतरं वत्थं दासामो / से पुवामेव आलोएज्जा-आउसो ! ति वा, भइणी ! ति वा, णो खलु मे कप्पति एयप्पगारे संगारवयणे पडिसुणेत्तए, अभिकखसि मे दाउं इयाणिमेव दलयाहि / 563. से सेवं वदंतं परो णेत्ता वदेज्जा-आउसो ! ति वा, भगिणी ! ति वा, आहरेतं वत्थं समणस्स दासामो', अवियाई वयं पच्छा वि अप्पणो सयट्ठाए पाणाई भूताई जीवाई सत्ताइ समारंभ समुद्दिस्स जाव चेतेस्सामो / एतप्पगारं निग्धोसं सोच्चा निसम्म तहप्पगारं वत्थं अफासुयं जाव णो पडिगाहेज्जा। 564. सिया णं परो णेत्ता वदेज्जा--आउसो ! ति वा, भइणी ! ति बा, आहर एवं वत्थं सिणाणेण वा जाव आसित्ता वा पघंसित्ता वा समणस्स णं दासामो। एतप्पगारं 1. क] आचारांग बत्ति पत्रांक 165 के आधार पर ख आचा० चूणि मूलपाठ टिप्पण पृ० 204 2. 'सुते वा सुततरे वा' के बदले 'सुत्तेण वा सुत्ततरे वा', सुए वा सुततराए वा, सुतेण वा सुतततेण वा' ___आदि पाठान्तर है। 3. 'संगारे' के बदले 'संगारवयणे' पाठ है। 4. 'अणुमच्छाहि' के बदले पाठान्तर है-'अहणा गच्छाहि / अर्थात् -'इस समय तो जाओ' वृत्तिकार ने भावार्थ दिया है-'अनुगच्छ तावत पुनः स्तोकवेलायां समागताय दास्यामि।' अभी तो जाओ। फिर थोड़ी देर में लौटने पर दूंगी/दंगा। 5. 'दासामो' के बदले 'चयामो' एवं वाहामो पाठान्तर हैं / अर्थ समान है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org