SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 749
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 296 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रु तस्कन्ध [7] अहावरा सत्तमा पडिमा से भिक्खू वा 2 अहासंथडमेव, उग्गहं जाएज्जा, तंजहा–पुढविसिलं वा कसिलं वा अहासंथडमेव, तस्स लाभे संवसेज्जा, तस्स अलाभे उक्कुडुओ वा सज्जिओ वा विहरेज्जा / सत्तमा पडिमा। 634. इच्चेतासि' सत्तण्हं पडिमाणं अण्णतरि जहा पिडेसणाए। 633. साधु या साध्वी पथिकशाला आदि स्थानों में पूर्वोक्त विधिपूर्वक अवग्रह की अनुज्ञा ग्रहण करके रहे / अवग्रह-गृहीत स्थान में पूर्वोक्त अप्रीतिजनक प्रतिकूल कार्य न करे। तथा विविध अवग्रहरूप स्थानों की याचना भी विधिपूर्वक करे / इसके अतिरिक्त अवगृहीत स्थानों में गृहस्थ तथा गृहस्थपुत्र आदि के संसर्ग से सम्बन्धित (पूर्वोक्त) स्थानदोषों का परित्याग करके निवास करे। भिक्षु इन सात प्रतिमाओं के माध्यम से अवग्रह ग्रहण करना जाने-- (1) उनमें से पहली प्रतिमा यह है--वह साधु पथिकशाला आदि स्थानों की परिस्थिति का सम्यक् विचार करके अवग्रह की पूर्ववत् विधिपूर्वक क्षेत्र-काल की सीमा के स्पष्टीकरण सहित याचना करे / इसका वर्णन स्थान की परिस्थिति का विचार करने से नियत अवधि पूर्ण होने के पश्चात् विहार कर देंगे तक समझना चाहिए। यह प्रथम प्रतिमा है। (2) इसके पश्चात् दूसरी प्रतिमा यह है-जिस भिक्षु का इस प्रकार का अभिग्रह (संकल्प) होता है कि मैं अन्य भिक्षओं के प्रयोजनार्थ अवग्रह की याचना करूंगा और अन्य भिक्षुओं के द्वारा याचित अवग्रह-स्थान (उपाश्रय) में निवास करूंगा / यह द्वितीय प्रतिमा है। (3) इसके अनन्तर ततीय प्रतिमा यों है—जिस भिक्षु का इस प्रकार का अभिग्रह होता है कि मैं दूसरे भिक्षुओं के लिए अवग्रह याचना करूंगा, परन्तु दूसरे भिक्षुओं के द्वारा याचित अवग्रह स्थानों में नहीं ठहरूंगा। यह तृतीय प्रतिमा है। (4) इसके पश्चात् चौथी प्रतिमा यह है --जिस भिक्षु के ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि मैं दूसरे भिक्षुओं के लिए अवग्रह की याचना नहीं करूंगा, किन्तु दूसरे साधुओं द्वारा याचित अवग्रह स्थान में निवास करूंगा। यह चौथी प्रतिमा है। (5) इसके बाद पांचवीं प्रतिमा इस प्रकार है-जिस भिक्षु के ऐसी प्रतिज्ञा होती है कि 1. चणिकार इस सूत्र का आशय स्पष्ट करते हैं---"अंतरादीवगं सुयं मे आउसंतेण भगवता, पंचविहे उग्गहे परवेयव्वे / एवं पिंडेसाणं सबज्झयणाण य / इत्यक्ग्रहप्रतिमा समाप्ता / अर्थात्-बीच में और आदि में 'सुयं मे आउसंतेण भगवता' इस प्रकार से कहकर शास्त्रकार को पंचविध अवग्रह की प्ररूपणा करनी चाहिए थी। (चणिकार के मतानुसार) इस प्रकार पिण्डैषणा की तथा समस्त अध्ययनों की अवग्रह प्रतिमा समाप्त हुई।" इस दृष्टि से सूत्र 636 से पहले ही यह अध्ययन समाप्त हो जाता है। यह सूत्र अतिरिक्त है। 2. 'जहा पिडेसणाए' शब्द से यहाँ पिण्डेपणा अध्ययन के सूत्र 410 के अनुसार वर्णन जान लेने का संकेत किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy