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________________ सप्तम अध्ययन : द्वितीय उद्देशक : सत्र 633-34 267 मैं अपने प्रयोजन के लिए ही अवग्रह की याचना करूंगा, किन्तु दूसरे दो, तीन, चार और पांच साधुओं के लिए नहीं। यह पांचवीं प्रतिमा है।। (E) इसके पश्चात छठी प्रतिमा यों है-जो साध जिसके अवग्रह (आवासस्थान) की याचना करता है उसी अवगृहीत स्थान में पहले से ही रखा हुआ शय्या-संस्तारक (बिछाने के लिए घास आदि) मिल जाए, जैसे कि इक्कड़ नामक तृणविशेष यावत् पराल आदि; तभी निवास करता है। वैसे अनायास प्राप्त शय्या-संस्तारक न मिले तो वह उत्कटुक अथवा निषद्या-आसन द्वारा रात्रि व्यतीत करता है। यह छठी प्रतिमा है। (7) इसके पश्चात् सातवी प्रतिमा इस प्रकार है–साधु या साध्वी ने जिस स्थान की अवग्रह-अनुज्ञा ली हो, यदि उसी स्थान पर पृथ्वीशिला, काष्ठशिला तथा पराल आदि बिछा हुआ प्राप्त हो तो वहाँ रहता है, वैसा सहज संस्तृत पृथ्वीशिला आदि न मिले तो वह उत्कटुक या निषद्या-आसन पूर्वक बैठकर रात्रि व्यतीत कर देता है / यह सातवी प्रतिमा है। 634. इन सात प्रतिमाओं में से जो साधु किसी एक प्रतिमा को स्वीकार करता है, वह इस प्रकार न कहे- मैं उग्राचारी हूँ, दूसरे शिथिलाचारी हैं, इत्यादि शेष समस्त वर्णन पिण्डषणा अध्ययन में किये गए वर्णन के अनुसार जान लेना चाहिए। विवेचन-अवग्रह सम्बन्धी सप्त प्रतिमाएं-सूत्र 633 और 634 में अवग्रह-याचना सम्बन्धी सात प्रतिज्ञाएँ (अभिग्रह) और उनका स्वरूप बताने के अतिरिक्त प्रतिमा-प्रतिपन्न साध का जीवन कि ना सहिष्ण, समभावी एवं नम्र होना चाहिए, यह भी उपसंहार में बता दिया है। चूर्णिकार एवं वृत्तिकार के अनुसार इन सातों प्रतिमाओं का स्वरूप क्रमश: इस प्रकार होगा —“सात प्रतिमाएं हैं। जितनी भी अवग्रह याचनाएं हैं, वे सब इन सातों प्रतिमाओं के अन्दर आ जाती हैं (1) प्रथम प्रतिमा-सांभोगिकों की सामान्य है। धर्मशाला आदि के सम्बन्ध में पहले से विचार करके प्रतिज्ञा करता है कि 'पसा ही उपाश्रय मुझे अवग्रह के रूप में ग्रहण करना है, अन्यथाभूत नहीं।' (2) दूसरी प्रतिमा-गच्छान्तर्गत साम्भोगिक साधुओं की तथा असाम्भोगिक उद्य क्तविहारी साधुओं की होती है। जैस--"मैं दूसरे साधुओं के लिए अवग्रह-याचना करूँगा, दूसरों के गृहीत अवग्रह में रहूंगा।" (3) तीसरी प्रतिमा-आहालदिक साधुओं और आचार्यों की होती है, कारण विशेष में अन्य साम्भोगिक साधुओं की भी होती है। जैसे—मैं दूसरे साधुओं के लिए अवग्रह की याचना करूंगा, किन्तु दूसरों के अवगृहीत अवग्रह में नहीं ठहरू गा। (4) चौथी प्रतिमा-गच्छ में स्थित अभ्युद्यतविहारियों तथा जिनकल्पादि के लिए परिकर्म करने वालों की होती है। जैसे—“मैं दूसरों के लिए अवग्रह-याचना नहीं करूंगा, दूसरे साधुओं द्वारा याचित अवग्रह में रहूँगा।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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