________________ 268 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्र तस्कन्ध (5) पांचवीं प्रतिमा-जिनकल्पिक की या प्रतिमाधारक साधु की होती है। यथा"मैं अपने लिए अवग्रह की याचना करूंगा, किन्तु अन्य दो, तीन, चार, पांच साधुओं के लिए नहीं।" (6) छठी प्रतिमा--यह भी जिनकल्पिक आदि मुनियों की या जिनभगवान् (वीतराग) की होती है / जैसे-मैं जिस अवग्रह (स्थानरूप अवग्रह) को ग्रहण करूंगा, उसी में अगर शय्यासंस्तारक (घास आदि) होगा तो ग्रहण करूगा (बाहर से अन्दर ले जाने या अन्दर से बाहर घास आदि संस्तारक निकालने का इसमें पूर्ण निषेध है) अन्यथा, उत्कटुक या निषद्याआसन से बैठकर रात्रि बिता दूंगा।" (7) सातवी प्रतिमा--यह भी जिनकल्पिक आदि मुनियों की या वीतरागों की होती है / जैसे--मैं जिस अवग्रह को ग्रहण करूगा, वहाँ यदि पहले से ही स्वाभाविक रूप से पृथ्वीशिला या काष्ठशिला आदि बिछाई हुई होगी तो ग्रहण करूगा, अन्यथा उत्कटुक या निषद्याआसन में बैठकर रात बिता दूंगा। सातों प्रतिमाओं में से किसी भी एक प्रतिमा का धारक साधु पिण्डैषणा-प्रतिमा-प्रतिपन्न की तरह आत्मोत्कर्ष, अभिमान आदि से रहित, समभाव में स्थित होकर रहे / ' "उल्लिस्सामि" आदि पदों का अर्थ---उल्लिस्सामि = आश्रय लूँगा, निवास करूगा / अहासमण्णागते = यथागत, पहले से जैसा है, वैसा ही / अहासंथङ = जैसा बिछा हुआ हो, जो भी संस्तारक हो, स्वाभाविक रूप से बिछा हो / ' पंचविध अवग्रह 635. सुयं मे आउसंतेणं भगवया एवमक्खायं इह खलु थेरेहिं भगवंतेहि पंचविहे उग्गहे पण्णत्ते, तंजहा-देविदोग्गहे 1, राओग्गहे 2, गाहावतिउग्गहे 3, सागारियउग्गहे 4, साधम्मियउग्गहे 5 / 635. हे आयुष्मन् शिष्य ! मैंने उन भगवान् से इस प्रकार कहते हुए सुना है कि इस जिन प्रवचन में स्थविर भगवन्तों ने पांच प्रकार का अवग्रह बताया है, जैसे कि-(१) देवेन्द्रअवग्रह, (2) राजावग्रह, (3) गृहपति-अवग्रह, (4) सागारिक-अवग्रह, और (5) सार्मिकअवग्रह। 1. (क) आचारांग चूणि मू० पा० टि० पृष्ठ 225 (ख) आचारांग वृत्ति पत्रांक 406 2. आचारांग वृत्ति पत्रांक 406 3. 'राओग्गहें' के बदले पाठान्तर हैं—रायाउग्गहे, रायोउग्गहे, राय-उग्गहे, राउग्गहे, राउउग्गहे, रायो ग्गहे आदि / अर्थ एक-सा है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org