________________ 216 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध आदान शब्द का एक अर्थ ज्ञानादि भी है, जो तीर्थंकरों की ओर से विशेष रूप से सर्वतोमुखी दान है। तात्पर्य यह है कि पादान का अर्थ, आज्ञा, उपदेश या सर्वतोमुखी ज्ञानादि का दान करने पर सारे वाक्य अर्थ होगा-हे मुने ! विधुत के प्राचार में तथा सू-प्राख्यात धर्म में सदा तीर्थंकरों की यह (पूर्वोक्त या वक्ष्यमाण) आज्ञा, उपदेश या दान है, जिसे तुम्हें भलिभाँति पालन-सेवन करना चाहिए। प्रादान का अर्थ कर्म या वस्त्रादि उपकरण करने पर अर्थ होगा ---स्वाख्यात धर्मा और विधूतकल्प मुनि इस (पूर्वोक्त या वक्ष्यमाण) कर्म या कर्मों के उपादन रूप वस्त्रादि का सदा क्षय या परित्याग करे / / . णिन्जोसइत्ता के भी विभिन्न अर्थ फलित होते हैं / नियत या निश्चित (कर्म या पूर्वोक्त स्वजन, उपकरण आदि का) त्याग करके / जुष धातु प्रीति पूर्वक सेवन अर्थ में प्रयुक्त होता है, वहाँ णिज्झोसइत्ता का अर्थ होगा--जो कुछ पहले (परिषहादि सहन, स्वजनत्याग आदि के सम्बन्ध में) कहा गया है, उस नियत या निश्चित उपदेश या वचन का मुनि सेवन-पालन या स्पर्शन करे। - 'अचेले परिपुसिते ...'-इस पंक्ति में 'अचेले' शब्द का अर्थ विचारणीय है / अचेन के दो अर्थ मुख्यतया होते हैं--प्रवस्त्र और अल्पवस्त्र / नत्र समास दोनों प्रकार का होतानिषेधार्थक और अल्पार्थक / निषेधार्थक अचेल शब्द जंगल में निर्वस्त्र रहकर साधना करने वाले जिनकल्पी मुनि का विशेषण है और अल्पार्थक अचेल शब्द स्थविरकल्पी मुनि के लिए 'प्रयुक्त होता है, जो संघ में रहकर साधना करते हैं। दोनों प्रकार के मुनियों को साधक ‘अवस्था में कुछ धर्मोपकरण रखने पड़ते हैं / यह बात दूसरी है कि उपकरणों की संख्या में अन्तर होता है / जंगलों में निर्वस्त्र रहकर साधना करने वाले जिनकल्पी मुनियों के लिए शास्त्र में मुखवस्त्रिका और रजोहरण ये दो उपकरण ही विहित हैं। इन इन उपकरणों में भी कमी की जा सकती है / अल्पतम उपककणों से काम चलाना कर्म-निर्जराजनक अवमोदर्य (ऊनोदरी) तप है / किन्तु दोनों कोटि के मुनियों को वस्त्रादि उपकरण रखते हुए भी उनके सम्बन में विशेष चिन्ता, आसक्ति या उनके वियोग में प्रार्तध्यान या उद्विग्नता नहीं होनी चाहिए। कदाचित् वस्त्र फट जाए या समय पर शुद्ध-ऐषणिक वस्त्र न मिले, तो भी उसके लिए विशेष चिन्ता या पार्तध्यान-रौद्रध्यान नहीं होना चाहिए / अगर प्रातरौद्रध्यान होगा या चिन्ता होगी तो उसकी विधूत-साधना खण्डित हो जामेगी / कर्मधूत की साधना तभी होगी, जब एक ओर स्वेच्छा से ब अत्यन्त अल्प वस्त्रादि उपकरण रखने का सकल्प करेगा, दूसरी ओर से अल्प वस्त्रादि होते हुए भी आने वाले परीषहों (रति-अरति, शीत, तृष्ण स्पर्श, दंशमशक आदि) 1. आचारांग चूणि आचा० मूल पाठ टिप्पण पृ० 63 / 2. आचारांग चूणि आचा० मूल पाठ यिप्पण पृ० 63 / 3. जैसे अज्ञ का अर्थ अल्पज्ञ होता है न कि ज्ञान-शून्य, वैसे ही यहाँ 'अचेल' का अर्थ अल्पचेल (अल्प वस्त्र वाला) भी होता है। प्राचा० शीला टीका पत्रांक 221 / 4. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 221 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org