________________ षष्ठ अध्ययन : तृतीय उदेशक : सूत्र 187-188 को समभावपूर्वक सहेगा, मन में किसी प्रकार की उद्विग्नता, क्षोभ, चंचलता या अपध्यान नहीं आने देगा / अचेल मुनि को किस-किस प्रकार की चिन्ता, उद्विग्नता या अपध्यानमग्नता नहीं होनी चाहिए? इस सम्बन्ध में विविध विकल्प परिजष्णे मे वस्थे' से लेकर 'दंस मसगफासा फुसंति' तक की पंक्तियों में प्रस्तुत किये हैं / 'परिसिते' शब्द से दोनों कोटि के मुनियों का हर हालत में सदैव संयम में रहना सूचित किया गया है। यही इस सूत्र का आशय है।' लाप आगममणो'-मुनि परिषहों और उपसर्गों को सम्यक प्रकार से अविचल होकर क्यों सहन करे? इससे उसे क्या लाभ है ? इसी शंका के समाधान के रूप में शास्त्रकार उपयुक्त पंक्ति प्रस्तुत करते हैं ? लाघव का अर्थ यहाँ लघुता या हीनता नहीं है, अपितु लघु (भार में हलका) का भाव 'लाघव' यहाँ विवक्षित है / वह दो प्रकार से होता है-द्रव्य से और भाव से / द्रव्य के उपकरण-लाघव और भाव से कर्मलाघव / इन दोनों प्रकार से लाघव समझ कर मुनि परिषहों तथा उपसर्गों को सहन करे। इस सम्बन्ध में नागार्जुन-सम्मत जो पाठ है, उसके अनुसार अर्थ होता है-'इस प्रकार उपकरण-लाघव से कर्मक्षयजनक तप हो जाता है।' साथ ही परिषह-सहन के समय तृणादि-स्पर्श या शीत-उष्ण, दंश-मशक प्रादि स्पर्शों को सहने से कायक्लेश रूप तप होता है। 2 तमेव "समभिजाणिया-यह पंक्ति लाघवधूत का हृदय है। जिस प्रकार से भगवान महावीर ने पूर्व में जो कुछ प्रादेश-उपदेश (उपकरण-लाधव, आहार-लाघव आदि के सम्बन्ध में) दिया है, उसे उसी प्रकार से सम्यक् रूप में जानकर-कैसे जानकर ? सर्वतः सर्वात्मनावत्तिकार ने इसका स्पष्टीकरण किया है--सर्वतः यानी द्रव्य क्षेत्र-काल-भाव से / द्रव्यतः-- पाहार, उपकरण आदि के विषय में, क्षेत्रतः--ग्राम, नगर आदि में, कालत:-दिन, रात, दुभिक्ष आदि समय में सर्वात्मना, भावतः-मन में कृत्रिमता, कपट, वंचकता आदि छोड़कर। . * सम्मत–सम्यक्त्व के अर्थ हैं-प्रशस्त, शोभन, एक या संगत तत्त्व / इस प्रकार के सम्यक्त्व को सम्यक् प्रकार से, निकट से जाने। अथवा समत्त का समत्वं रूप हो तो, तब वावयार्थ होगा इस प्रकार के समत्व-समभाव को सर्वतः सर्वात्मना प्रशस्त भावपूर्वक जानता हप्राया जानकर (पाराधक होता है)। आचारांगचूर्णि में ये दोनों अर्थ किये गये हैं। तात्पर्य यह है कि उपकरण-लाघव आदि में भी समभाव रहे, दूसरे साधकों के पास अपने से न्यूनाधिक उपकरणादि देखकर उनके प्रति घृणा, द्वेष, तेजोद्वेष, प्रतिस्पर्धा, रागभाव, अवज्ञा ग्रादि मन में न आवे, यही समत्व को सम्यक् जानना है / इसी शास्त्र में बताया गया है जो साधक 1. आचा० शीला० टीका पत्रांक 221 / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 222 / 2. (क) प्राचा० शीला टीका पत्रांक 222 / (ख) आचारांगचुणि में नागार्जुन-सम्मत पाठ और व्याख्या। 4. प्राचारांगवृत्ति में सम्यक्त्व के पर्यायवाची शब्द विषयक श्लोक "प्रशस्तः शोभनश्चैव, एकः संगत एव च। इत्यतरूपसष्टस्तु भावः सम्यक्त्वमुच्यते // " 5. देखिये, प्राचारांग मूलपाठ के पादटिप्पण में पृ० 64 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org