________________ 215 आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध तीन वस्त्र-युक्त, दो वस्त्र-युक्त, एक वस्त्र-युक्त या वस्त्ररहित रहता है, वह परस्पर एक दूसरे की अवज्ञा, निन्दा, घृणा न करे, क्योंकि ये सभी जिनाज्ञा में हैं।' वस्त्रादि के सम्बन्ध में समान आचार नहीं होता, उसका कारण साधकों का अपना-अपना संहनन, धुति, सहनशक्ति आदि हैं, इसलिए साधक अपने से विभिन्न प्राचार वाले साधु को देखकर उसकी अवज्ञा न करे, न ही अपने को हीन माने / सभी साधक यथाविधि कर्मक्षय करने के लिए संयम में उद्यत हैं, ये सभी जिनाज्ञा में हैं, इस प्रकार जानना ही सम्यक् अभिज्ञात करना है। अथवा उक्त वाक्य का यह अर्थ भी सम्भव है-उसी लाघव को सर्वत: (द्रव्यादि से) सर्वात्मना (नामादि निक्षेपों से) निकट से प्राप्त (माचरित) करके सम्यक्त्व को ही सम्यक प्रकार से जान ले-अर्थात् तीर्थंकरों एवं गणधरों के द्वारा प्रदत्त उपदेश से उसका सम्यक आचरण करे। ‘एवं तेसि...."अधियासियं'---इस पंक्ति के पीछे प्राशय यह है कि यह लाघव या परीषहसहन आदि धतवाद का उपदेश अव्यवहार्य या अशक्य अनुष्ठान नहीं है। यह बात साधकों के दिल में जमाने के लिए इस पंक्ति में बताया गया है कि इस प्रकार अचेलत्वपूर्वक लाघव से रहकर विविध परीषह जिन्होंने कई पूर्व (वर्षों) तक (अपनी दीक्षा से लेकर जीवन पर्यन्त) सहे हैं तथा संयंम में बढ़ रहे हैं, उन महान् वीर मुनिवरों (भगवान् ऋषभदेव से लेकर भगवान् महावीर तक के मुक्तिगमन योग्य मुनिवरों) को देख / ' 'किसा माहा भवंति'-इस वाक्य के वृत्तिकार ने दो अर्थ किए हैं.---(१) तपस्या तथा परीषह-सहन से उन प्रज्ञा-प्राप्त (स्थितप्रज्ञ) मुनियों को बाहें कृश- दुर्बल हो जाती हैं, (2) उनकी बाधाएँ-पीड़ाएँ कृश-कम हो जाती हैं। तात्पर्य यह है कि कर्म-क्षय के लिए उद्यत प्रज्ञाबान मुनि के लिए तप या परीषह-सहन केवल शरीर को ही पीड़ा दे सकते हैं, उनके मन को वे पीड़ा नहीं दे सकते। बिस्सेणि कटु' का तात्पर्य वृत्तिकार ने यह बताया है कि संसार-श्रेणी-संसार में अवतरित करने वाली राग-द्वष-कषाय संतति (शृखला) है, उसे क्षमा आदि से विश्रेणित करके-तोड़कर / 'परिण्णाय' का अर्थ है ---समत्व भावना से जान कर / जैसे भगवान् महावीर के धर्म जोऽवि दुबत्थतिवत्थी एमेण अचेलगो व संघरह / गहु ते होलति पर, सम्वेऽपि य ते जिणाणाए // 1 // जे खलु विसरिसकप्पा संघयणधिइआदि कारणं पप्प। णऽव मनाइ, ण यहीण अप्पाण मन्नई तेहिं // 2 // सम्वेऽवि जिणाणाए नहाविहि कम्म-खम-अहाए / विहरति उज्जया खलु, सम्म अभिजाणई एवं // 3 // -पाचा ०शीला० टीका पत्रांक 222 / 2. माचा पीला टीका पत्रांक 222 / 3. प्राचा० शीला टीका पत्रांक 222 / 4, प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 223 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org