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________________ षष्ठ अध्ययन : तृतीय उद्देश्क : सूत्र 189 219 शासन में कोई जिनकल्पी (अवस्त्र) होता है, कोई एक वस्त्रधारी, कोई द्विवस्त्रधारी और कोई त्रिवस्त्रधारी, कोई स्थविरकल्पी मासिक उपवास (मासक्षपण) करता है, कोई अर्द्धमासिक तप; इस प्रकार न्यूनाधिक तपश्चर्याशील और कोई प्रतिदिन भोजी भी होते हैं / वे सब तीर्थकर के वचनानुसार संयम पालन करते हैं इनकी परस्पर निन्दा या अवज्ञा न करना ही समत्व भावना है, जो ऐसा करता है वही समत्वदर्शी है।' अांदीन-द्वीप तुल्य धर्म 189. विरयं भिक्वं रीयंतं धिररातोसियं अरती तस्थ कि विधारए ? संघमाणे समुद्विते। जहा से बीवे असंवीणे एवं से धम्मे आरियपदेसिए / ते अणवखमाणा' अणतिवातेमाणा वहता मेधाविणो पंडिता। एवं तेसि भगवतो अणुट्ठाणे जहा से दियापोते / एवं ते सिस्सा दिया य रातो य अणुपुषेण वायित त्ति बेमि। ॥तइओ उद्दे सो समतो॥ 189. चिरकाल से मुनिधर्म में प्रवजित (स्थित), विरत और (उत्तरोत्तर) संयम में गतिशील भिक्षु को क्या अरति (संयम में उद्विग्नता) धर दबा सकती है ? (प्रतिक्षण प्रात्मा के साथ धर्म का) संधान करने वाले तथा (धर्माचरण में) सम्यक् प्रकार से उत्थित मुनि को (अरति अभिभूत नहीं कर सकती)। जैसे असंदीन (जल में नहीं डूबा हुआ) द्वीप (जलपोत-यात्रियों के लिए) आश्वासन-स्थान होता है, वैसे ही प्रार्य (तीर्थकर) द्वारा उपदिष्ट धर्म (संसार-- समुद्र पार करने वालों के लिए आश्वासन-स्थान) होता है। __ मुनि (भोगों की) आकांक्षा तथा (प्राणियों का) प्राण-वियोग न करने के कारण लोकप्रिय (धार्मिक जगत् में आदरणीय), मेधावी और पण्डित (पापों से दूर . रहने वाले) कहे जाते हैं। जिस प्रकार पक्षी के बच्चे का (पंख पाने तक उनके माता-पिता द्वारा) पालन किया जाता है, उसी प्रकार (भगवान् महावीर के) धर्म में जो अभी तक अनुत्थित हैं (जिनको बुद्धि अभी तक धर्म में संस्कारबद्ध नहीं हुई है), उन शिष्यों का 1. माचा शीला टीका पत्रांक 223 // 2. 'ते अणवसमाणा' के बदले 'ते अवयमाणा' पाठ मानकर चूणि में अर्थ किया गया है-'अवदमाणा मुसवातं' =मृषावाद न बोलते हुए। 3. इसके बदले चूर्णि में अर्थ सहित पाठ है-चत्तोवगरणसरीरा दियत्ता, अहवा साहुवम्गस्स सन्निवग्गस्स वा चियता जं भणितं सम्मता ।दियत्ता का अर्थ है--जिन्होंने उपकरण और शरीर (ममत्व) का त्याग कर दिया है। प्रथवा दयिता पाठ मानकर अर्थसाधुवर्ग के या संज्ञी जीवों के या श्रावक वर्ग के प्रिय होते हैं, जो कुछ कहते हैं, उसमें वे (साधु, श्रावक) सम्मत हो जाते हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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