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________________ 220 माचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध वे-(महाभाग प्राचार्य) क्रमश: वाचना आदि के द्वारा दिन-रात पालन-संवर्द्धन करते हैं / ऐसा-मैं कहता हूँ। विवेचन-दीर्घ काल तक परीषह एवं संकट रहने के कारण कभी-कभी ज्ञानी और वैरागी श्रमण का चित्त भी चंचल हो सकता है, उसे संयम में अरति हो सकती है। इसकी सम्भावना तथा उसका निराकरण-बोध प्रस्तुत सूत्र में है। अरती तस्य कि विधारए ? - इस वाक्य के वृत्तिकार ने दो फलितार्थ दिए हैं- (1) जो साधक विषयों को त्याग कर मोक्ष के लिए चिरकाल से चल रहा है, बहुत वर्षों से संयमपालन कर रहा है, क्या उसे भी अरति स्खलित कर सकती है ? हाँ, अवश्य कर सकती है। क्योंकि इन्द्रियां दुर्बल होने पर भी दुर्दमनीय होती हैं, मोह की शक्ति अचिन्त्य है, कर्म-परिणति क्या-क्या नहीं कर देती ? सभ्यरज्ञान में स्थित पुरुष को भी सघन, चीकने, भारी एवं वज्रसारमय कर्म अवश्य ही पथ या उत्पथ पर ले जाते हैं। अतः ऐसे भुलावे में न रहे कि 'मैं वर्षों से संयम-पालन कर रहा हूँ, चिरदीक्षित हूँ, अरति (संयम में उद्विग्नता) मेरा क्या करेगी ? क्या बिगाड़ देगी?, इस पद का दूसरा अर्थ है, (2) वाह ! क्या ऐसे पुराने मंजे हुए परिपक्व साधक को भी अरति धर दबाएगी? नहीं धर दबा सकती।' प्रथम अर्थ अरति के प्रति सावधान रहने की सूचना देता है, जबकि दूसरा अर्थ अरति की तुच्छता बताता है / 'बीवे असांदीने'- वृत्तिकार 'दीव' शब्द के 'द्वीप' और 'बीप' दोनों रूप मानकर व्याख्या करते हैं। द्वीप नदी-समुद्र प्रादि के यात्रियों को आश्रय देता है और दीप अन्धकाराच्छन्न पथ के ऊबड़-खाबड़ स्थानों से बचने तथा दिशा बताने के लिए प्रकाश देता है / दोनों ही दोदो प्रकार के होते हैं--(१) संदीन और (2) असंदीन / 'सांदीन द्वीप' वह है-जो कभी पानी में डूबा रहता है, कभी नहीं और 'संदीन दीप' वह है जिसका प्रकाश बुझ जाता है / 'असंदीन द्वीप' वह है, जो कभी पानी में नहीं बता, इसी प्रकार 'असदीन टीप' वह है जो कभी बुझता नहीं, जैसे सूर्य, चन्द्र आदि का प्रकाश / अध्यात्म क्षेत्र में सम्यक्त्वरूप भाव द्वीप या ज्ञानरूप दीप भी धर्म रूपी जहाज में बैठकर संसार-समुद्र पार करने वाले मोक्षयात्रियों को आश्वासनदायक एवं प्रकाशदायक होता है।-प्रतिपाती सम्यक्त्व संदीन भावद्वीप है, जैसे औपशमिक और क्षायोपशामिक सम्यक्त्व और अप्रतिपाती (क्षायिक) सम्यक्त्व असंदीन भाव-द्वीप है। इसी तरह संदीन भाव दीप श्रुत ज्ञान है और असंदोन भाव-दीप केवलज्ञान या आत्म-ज्ञान है। आर्योपदिष्ट धर्म के क्षेत्र में असंदीन भावद्वीप क्षायिक सम्यक्त्व है और असंदीन भावदीप प्रात्म-ज्ञान या केवलज्ञान है। अथवा विशिष्ट साधूपरक व्याख्या करने पर--भावद्वीप या भावदीप विशिष्ट असंदीन साधु होता है, जो संसार-समुद्र में डूबते हए यात्रियों या धर्म-जिज्ञासूत्रों को चारों ओर कर्मानव रूपी जल से सुरक्षित धर्मद्वीप की शरण में लाता है / अथवा सम्यग्ज्ञान से उत्थित परीषहोपसर्गों से अक्षोभ्य साधु असंदीन दीप है, जो मोक्षयात्रियों को शास्त्रज्ञान का प्रकाश देता रहता है। 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 224 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 224 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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