________________ षष्ठ अध्ययन : चतुर्थे उद्देशक : सूत्र 190-191 अथवा धर्माचरण के लिए सम्यक उद्यत साधु अरति से बाधित नहीं होता, इस सन्दर्भ में उस धर्म के सम्बन्ध में प्रश्न उठने पर यह पंक्ति दी गयी कि असंदीन द्वीप की तरह वह प्रार्य-प्रदेशित धर्म भी अवेक प्राणियों के लिए सदैव शरणदायक एवं आश्वासच हेतु होने से असंदीन है। आर्य-प्रदेशित (तीर्थकर द्वारा उपदिष्ट) धर्म कष, ताप, छेद के द्वारा सोने की तरह परीक्षित है, या कुतर्कों द्वारा अकाट्य एवं प्रक्षोभ्य है, इसलिए यह धर्म असंदीव है।' 'जहा से दियापोते'- यहाँ पक्षी के बच्चे से नवदीक्षित साधू को भागवत-धर्म में दीक्षित-प्रशिक्षित करने के व्यवहार की तुलना की गई है। जैसे मादा पक्षी अपने बच्चे को अण्डे में स्थित होने से लेकर पंख आकर स्वतंत्र रूप से उड़ने योग्य नहीं होता, तब तक उसे पालती-पोसती है, इसी प्रकार महाभाम आचार्य भी नवदीक्षित साधु को दीक्षा देने से लेकर समाचारी का शिक्षण-प्रशिक्षण तथा शास्त्र अध्यापन आदि व्यवहारों में क्रमशः गीतार्थ (परिपक्व) होने तक उसका पालन-पोषण-संवर्द्धन करते हैं / इस प्रकार भगवान् के धर्म में अनुस्थित शिष्यों का संसार-समूद्र पार करने में समर्थ बना देना परमोपकारक प्राचार्य अपना कर्तव्य समझते हैं।' // तृतीय उद्देशक समाप्त / / चउत्थो उद्देसओ चतुर्य उध्देशक गौरवस्यागी 190. एवं ते सिस्ता दिया य रातो य अणुपुट्वेण वायिता तेहिं महावीरेहि पण्णाणमंतेहिं तेसंतिए पण्णाणमुवलम्भ हेच्चा उवसमं फारुसियं समादियंति / सित्ता बंभचेरंसि आणं तं जो ति मण्णमाणा आघायं तु सोच्चा गिसम्म समणुण्णा जीविस्सामो' एगे णिक्खम्म, ते असंभवंता विडज्ममाणा कामेसु गिद्धा अज्झोववण्णा समाहिमाघातमझोसयंता सस्थारमेव फरसं वदंति / 191. सोलमंता उवसंता संखाए रीयमाणा / असीला अणुवयमाणस्स घितिया मंदस्स बालया। णियट्टमाणा वेगे आयारगोयरमाइवखंति, णाणभट्ठा सणलसिणो। णममाणा वेगे जीवितं बिप्परिणामेंति / पुष्टा वेगे णियति जीवितस्सेव कारणा। णिक्वंतं पि तेसि दुण्णिक्खतं भवति / बालवयणिज्जा हु ते जरा पुणों पुणो जाति 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 224 / 2. प्राचा० शीला टीको पत्रांक 224 / 3. 'अक्खातं सोचा णिसम्मा य' यह पाठान्तर स्वीकार करके चूर्णिकार ने अर्थ दिया है-"अक्खाता गणधरेहि' थेरेहि वा, तेसिं सोच्चा णिसम्मा य / ' गणधरों या स्थविरों के द्वारा कहे हुए प्रवचनों को सुनकर और विचार करके। 4. 'पुणो पुणो गर्भ पगप्पेति' पाठ इसके बदले चर्णिकार ने माना है। अर्थ होता है-पुनः पुनः माता के गर्भ में आता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org