________________ 222 आचारांग सूत्र---प्रथम भुतस्कन्ध पकति / अधे संभवंता विद्दायमाणा, अहमंसीति विउक्कसे / उदासीणे फरसं वदति, पलियं पगंथे अदुवा पगंथे अतहेहिं / तं मेधावी जाणेज्जा धम्मं / 120. इस प्रकार वे शिष्य दिन और रात में (स्वाध्याय-काल में) उन महावीर और प्रज्ञानवान (गुरुओं) द्वारा (पक्षियों के बच्चों के प्रशिक्षण-संवर्द्धन क्रम की तरह) क्रमशः प्रशिक्षित/संवद्धित किये जाते हैं। उन (प्राचार्यादि) से विशुद्ध ज्ञान पार (बहुश्र त बनने पर) उपशमभाव को छोडकर (ज्ञान प्राप्ति से गवित होकर) कुछ शिष्य कठोरता अपनाते हैं / अर्थात्-- गुरुजनों का अनादर करने लगते हैं। वे ब्रह्मचर्य में निवास करके भी उस (प्राचार्यादि की) आज्ञा को 'यह (तीर्थकर की आज्ञा) नहीं है', ऐसा मानते हुए (गुरुजनों के वचनों की अवहेलना कर देते हैं)। कुछ व्यक्ति (प्राचार्यादि द्वारा) कथित (पाशातना आदि के दुष्परिणामों) को सुन-समझकर 'हम (प्राचार्यादि से) सम्मत या उत्कृष्ट संयमी जीवन जीएंगे' इस प्रकार के संकल्प से प्रवजित होकर वे (मोहोदयवश) अपने संकल्प के प्रति सस्थिर नहीं जनते। वे विविध प्रकार (ईर्ष्यादि) से जलते रहते हैं, काम-भोगों में गद्ध या (ऋद्धि, म और सुख की संवृद्धि में) रचे-पचे रहकर (तीर्थंकरों द्वारा) प्ररूपित समाधि सिम को नहीं अपनाते, शास्ता (प्राचार्यादि) को भी वे कठोर वचन कह देते हैं। 191. शीलवान, उपशान्त एवं प्रज्ञापूर्वक संयम-पालन में पराक्रम करने वाले मुनियों को वे अशीलवान् कहकर बदनाम करते हैं। यह उन मन्दबुद्धि लोगों की दूसरी मूढ़ता (अज्ञानता) है। कुछ संयम से निवृत्त हुए (या वेश परित्याग कर देने वाले) लोग (प्राचारसम्पन्न मनियों के) आचार-विचार का बखान करते हैं, (किन्तु) जो ज्ञान से भ्रष्ट हो सम्यग्दर्शन के विध्वंसक होकर (स्वयं चारित्र-भ्रष्ट हो जाते है, तथा दूसरों को भी शंकाग्रस्त करके सन्मार्ग से भ्रष्ट कर देते हैं)। कई साधक (प्राचार्यादि के प्रति या तीर्थकरोक्त श्रुतज्ञान के प्रति) नत(समर्पित) होते हुए भी (मोहोदयवश) संयमी जीवन को बिगाड़ देते हैं। कुछ साधक (परीषहों से) स्पृष्ट (आक्रान्त) होने पर केवल (सुखपूर्वक) जीवन 1. 'पगथे' पद की व्याख्या चूर्णिकार ने इस प्रकार की 1- "अदुवत्ति अहवा कत्थ श्लाघायां, कत्थणं ति वडढणं ति वा मद्दणं ति वा एगट्ठा, ण पडिसेधणे, पगंथ अभणंतो चेव मुहमक्कडियाहि वा "तं होति ।"--अथवा कत्थ धातु श्लाघा (मात्मप्रशंसा) अर्थ में है, अतः कत्थन = वद्धन-चढ़ा-चढ़ा कर कहना, अथवा मर्दन करना-बात को बार-बार पिष्टपेषण करना। कत्थणं, बढणं, महणं, ये एकार्थक हैं / 'न' निषेध अर्थ में हैं / प्रकत्थन न करके कई लोग मुह मचकोड़ना आदि मुख चेष्टाएँ करते हए उसकी होलना (निन्दा) करते हैं। इससे प्रतीत होता हैं--चूर्णिकार ने 'पगंथे' के बदले 'अपगंथे शब्द स्वीकार किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org