________________ षष्ठ अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 187-188 215 अचेलक मुनि उनमें से एक या दूसरे, नाना प्रकार के स्पर्शों (परोषहों) को (समभाव से) सहन करे / अपने आपको लाघवयुक्त (द्रव्य और भाव से हलका) जानता हुआ वह अचेलक एवं तितिक्षु भिक्षु) तप (उपकरण-ऊनोदरी एवं कायक्लेश तप) से सम्पन्न होता है। भगवान ने जिस रूप में अचेलत्व का प्रतिपादन किया है उसे उसी रूप में जान-समझकर, सब प्रकार से सर्वात्मना सम्यक्त्व/सत्व जाने अथवा समत्व का सेवन करे। जीवन के पूर्व भाग में प्रजित होकर चिरकाल तक (जीवनपर्यन्त) संयम में विचरण करने वाले, चारित्र-सम्पन्न तथा संयम में प्रगति करने वाले महान् वीर साधुओं ने जो (परीषहादि) सहन किये हैं; उसे तू देख / 188. प्रज्ञावान् मुनियों की भुजाएँ कृश (दुर्बल) होती हैं, (तपस्या से तथा परीषह सहन से) उनके शरीर में रक्त-मांस बहुत कम हो जाते हैं / __ संसार-वृद्धि की राग-द्वेष-कषायरूप श्रेणी-संतति को (समत्व की) प्रज्ञा से जानकर (क्षमा, सहिष्णुता आदि से) छिन्न-भिन्न करके वह मुनि (संसार-समुद्र से) तीर्ण, मुक्त एवं विरत कहलाता है, ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-पिछले उद्देशक में कर्म-धनन के संदर्भ में स्नेह-त्याग तथा सहिष्णुता का निर्देश किया गया था, सहिष्णुता की साधना के लिए ज्ञानपूर्वक देह-दमन, इन्द्रिय-निग्रह पावश्यक है। वस्त्र आदि उपकरणों की अल्पता भी अनिवार्य है। इसलिए तप, संयम, परीषह सहन आदि से उसे शरीर और कषाय को कृश करके लाघव-अल्पीकरण का अभ्यास करना चाहिए / धूतवाद के संदर्भ में देह-धूनन करने का उत्तम मार्ग इस उद्देशक में बताया गया है। एवं खु मुणी आदांणं' ---यह वाक्य बहुत ही गम्भीर है / इसमें से अनेक अर्थ फलित होते हैं / वृत्तिकार ने 'आदान' शब्द के दो अर्थ सूचित किये हैं-जो आदान-ग्रहण किया जाए, उसे आदान कहते हैं, कम / अढवा जिसके द्वारार्म का ग्रहण (प्रादान) किया जाए, वह कर्मों का उपदान प्रादान है। वह आदान है, धर्मोपकरण के अतिरिक्त आगे की पंक्तियों में कहे जाने वाले वस्त्रादि / इस (पूर्वोक्त) कर्म को मुनि क्षय करके अथवा (आगे कहे जाने वाले धर्पोपरण से अतिरिक्त वस्त्रादि का मुनि परित्याग करे।' ___ चूर्णिकार के मतानुसार यहाँ 'एस मुणी आवाणं....' पाठ है / 'मुणी' शब्द को उन्होंने सम्बोधन का रूप माना है / 'एस' शब्द के उन्होंने दो अर्थ फलित किये हैं-(१) यह जो अभीअभी कहा गया था---परीषहादि-जनित नाना दुःखों का स्पर्श होने पर उन्हें समभाव से सहन करे / (2) जो आगे कहा जायगा, हे मुनि ! तुम्हारे लिए तीर्थंकरों की आज्ञा-प्राज्ञापन या उपदेश है। 1. प्राचा. शीला० टीका पत्रांक 180 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org