________________ 29. भाचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्य क्रमप्राप्त और माकस्मिक अथवा सपरिक्रम-(सपराक्रम) और अपरिक्रम (अपराक्रम) अथवा' अव्याघात और सव्याघात कहा गया है। सविचार अनशन-तब किया जाता है, जब तक जंघाबल क्षीण न हो (अर्थात्-शरीर समर्थ हो) जब काल-परिपाक से प्रायु क्रमशः क्षीण होती जा रही हो, जिसमें विधिवत् क्रमशः द्वादश वर्षीय संलेखना की जाती हो। इसका क्रम इस प्रकार है- प्रव्रज्याग्रहण, गुरु के समीप रहकर सूत्रार्थ-ग्रहण शिक्षा, उसके साथ ही प्रासेवना-शिक्षा द्वारा सक्रिय अनुभव, दूसरों को सूत्रार्थ का अध्यापन, फिर गुरु से अनुज्ञा प्राप्त करके तीन अनशनों में से किसी एक का चुनाव और (1) आहार, (2) उपधि, (3) शरीर-इन तीनों से विमुक्त होने का प्रतिदिन अभ्यास करना, अन्त में सबसे क्षमा-याचना, पालोचना-प्रायश्चित्त द्वारा शुद्धीकरण करके समाधिपूर्वक शरीर-विसर्जन करना / इसी को आनुपूर्वी अनशन (अर्थात्-अनशन की अनुक्रमिक साधना) भी कहते हैं। इसमें दुभिक्ष, बुढ़ापा, दुःसाध्य मृत्युदायक रोग और शरीरबल की क्रमशः क्षीणता आदि कारण भी होते हैं।" आकस्मिक अनशन-सहसा उपसर्ग उपस्थित होने पर या अकस्मात् जंघाबल आदि क्षीण हो जाने पर, शरीर शून्य या बेहोश हो जाने पर, हठात् बीमारी का प्राणान्तक आक्रमण हो जाने पर तथा स्वयं में उठने-बैठने प्रादि की विलकुल शक्ति न होने पर किया जाता है। पूर्व उद्देशकों में आकस्मिक अनशनों का वर्णन था, इस उद्देशक में क्रमप्राप्त अनशन का वर्णन है / इसे प्रानुपूर्वी अनशन, अव्याघात, सपराक्रम और सविचार अनशन भी कहा जाता है। समाधिमरण के लिए चार बातें आवश्यक - (1) संयम, (2) ज्ञान, (3) धैर्य और (4) निर्मोहभाव; इन चारों का संकेत इस गाथा में दिया गया है / "विमोहाई "समासज्ज सत्यं गच्चा अरोलिस'---इस गाथा में वैहानसमरण सहित चार मरणों को विमोह कहा गया है / क्योंकि इन सब में शरीरादि के प्रति मोह सर्वथा छोड़ना होता है। इन्हीं को 'विमोक्ष' कहा गया है। इस गाथा का तात्पर्य यह है कि इन सब विमोहों को, बाह्य-प्राभ्यन्तर, क्रमप्राप्त-आकस्मिक, सविचार-अविचार आदि को सभी प्रकार से भलीभाँति जानकर, इनके विधि-विधानों, कृत्यों-अकृत्यों को समझकर अपनी धृति, संहनन, बलाबल आदि का नाप-तौल करके संयम के धनी, धीर और हेयोपादेय विवेक-बुद्धि से अोत. 1. जा सा अणसणा मरणे, दुविहा सा विाहिया। सवियारमवीयारा, कायचेट्ठ पई भवे // 12 / अहवा सपडिकम्मा अपरिक्कम्मा य आहिया / नोहा मनोहारी आहारच्छेओ दोसु वि 13 // - अभिधान रा० कोष भा० १पृ० 303-304 2. सागारधर्मामृत 8/9-10 3. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 289 / 4. उपसर्गे, दुभिक्षे जरसि रुजायां च निष्प्रतीकारे // धमाय तनुविमोचनमा संलेखनामार्याः // रत्नकरण्डक श्रावकाचार 122 / 5. अभिधान राजेन्द्र कोप भा 110303 / प्राचा० शीला टीका पत्रांक 289 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org