________________ पंचम अध्ययन : षष्ठ उद्देशक : सूत्र 172 183 उस (ज्ञान की विभिन्न परिणतियों) की अपेक्षा से प्रात्मा को (विभिन्न नामों से) प्रतीति--पहचान होती है / यह आत्मवादी सम्यक्ता (सत्यता या शमिता) का पारगामी (या सम्यक् भाव से दीक्षा पर्यायवाला) कहा गया है। विवेचन-'जे आता से विष्णाता०' तथा 'जेण विजाणाति से आता' इन दो पंक्तियों द्वारा शास्त्रकार ने प्रात्मा का लक्षण द्रव्य और गुण दोनों अपेक्षाओं से बता दिया है। चेतन ज्ञाता द्रव्य है, चैतन्य (ज्ञान) उसका गुण है / यहाँ ज्ञान (चेतन्य) से आत्मा (चैतन) की अभिन्नता तथा ज्ञान प्रात्मा का गुण है, इसलिए आत्मा से ज्ञान की भिन्नता दोनों बता दी हैं / द्रव्य और गुण न सर्वथा भिन्न होते हैं, न सर्वथा अभिन्न। इस दृष्टि से अात्मा (द्रव्य) और ज्ञान (गुण) दोनों न सर्वथा अभिन्न हैं, न भिन्न / गुण द्रव्य में ही रहता है और द्रव्य का ही अंश है, इस कारण दोनों अभिन्न भी हैं और आधार एवं प्राधेय की दृष्टि से दोनों भिन्न भी हैं। दोनों की अभिन्नता और भिन्नता का सूचन भगवती सूत्र' में मिलता है "जोवे मं भंते ! जो जीवे जीवे ?" "गोयमा, जोवे ताव नियमा जोवे, जीवे वि नियमा जीवे। --भंते ! जीव चैतन्य जीव है ?" "गौतम ! जीव नियमतः चैतन्य है, चैतन्य भी नियमतः जीव है।" निष्कर्ष यह है कि ज्ञानी (ज्ञाता) और ज्ञान दोनों प्रात्मा हैं / ज्ञान ज्ञानी का प्रकाश है। इसी प्रकार ज्ञान की क्रिया (उपयोग) घट-पट आदि विभिन्न पदार्थों को जानने में होती है / अतः ज्ञान से या ज्ञान की क्रिया से ज्ञेय या ज्ञानी आत्मा को जान लिया जाता है। सार यह है कि जो ज्ञाता है, वह तू (आत्मा) ही है, जो तू है, वही ज्ञाता है। तेरा ज्ञान तुझ से भिन्न नहीं है। // पंचम उद्देशक समाप्त // आज्ञा-निर्देश छट्ठो उद्देसओ षष्ठ उद्देशक 172. अणाणाए एगे सोवट्ठाणा, आणाए एगे णिरुवट्ठाणा / एतं ते मा होतु। एतं कुसलस्स दसणं / तद्दिट्ठीए तम्मुत्तीए तप्पुरक्कारे तस्सण्णी तण्णिवेसणे अभिभूय अदक्ख / 1. शतक 6 / उद्देशक 10 सूत्र 174 / 2. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 205 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org