________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध तू वही है, जिसे तू दास बनाने हेतु ग्रहण करने योग्य मानता है; तू वही है, जिसे तू मारने योग्य मानता है। ज्ञानी पुरुष ऋजु (सरलात्मा) होता है, वह (परमार्थतः हन्तव्य और हन्ता की एकता का) प्रतिबोध पाकर जीने वाला होता है। इस (आत्मैक्य के प्रतिबोध) के कारण वह स्वयं हनन नहीं करता और न दूसरों से हनन करवाता है। (न ही हनन करने वाले का अनुमोदन करता है।) ___ कृत-कर्म के अनुरूप स्वयं को ही उसका फल भोगना पड़ता है, इसलिए किसी ' का हनन करने की इच्छा मत करो। विवेचन--'तुम सि गाम तं चेव' इत्यादि सूत्र में भगवान् महावीर ने आत्मौपम्यवाद (आयतुले पयासु) का निरूपण करके सर्व प्रकार की हिंसा से विरत होने का उपदेश दिया है। दो भिन्न प्रात्माओं के सुख या दुःख की अनुभूति (संवेदन) की समता सिद्ध करना ही इस सूत्र का उद्देश्य है। इसका तात्पर्य है.--'दूसरे के द्वारा किसी भी रूप में तरी हिंसा की जाने पर जैसी अनुभूति तुझे होती है, वैसी ही अनुभूति उस प्राणी को होगी, जिसकी तू किसी भी रूप में हिंसा करना चाहता है। इसका एक भाव यह भी है कि तू किसी अन्य की हिंसा करना चाहता है, पर वास्तव में यह उसकी (अन्य की) हिंसा नहीं, किन्तु तेरी शुभवत्तियों की हिंसा है, अत: तेरी यह हिंसा-वृत्ति एक प्रकार से आत्म-हिंसा (स्व-हिंसा) ही है। 'अंजू' का अर्थ ऋजु-सरल, संयम में तत्पर, प्रबुद्ध साधु होता है। यहाँ पर यह प्राशय प्रतीत होता है--ऋजु और प्रतिबुद्धजीवी बनकर ज्ञानी पुरुष हिंसा से वचे, किसी भय, प्रलोभन या छल-बल से नहीं / 'अणुसंवेयणमप्पाणेणं'-में अनुसंवेदन का अर्थ यह भी हो सकता है कि तुमने दूसरे जीव को जिस रूप में वेदना दी है, तुम्हारी आत्मा को भी उसी रूप में वेदना की अनुभूति होगी; वेदना भोगनी होगी। आत्मा हो विज्ञाता 171. जे आता से विण्णाता, जे विण्णाता से आता। जेण विजाणति से आता / तं पडुच्च पडिसंखाए / एस आतावादी समियाए परियाए वियाहिते त्ति बेमि। // पंचमो उद्देसओ समत्तो॥ 171. जो आत्मा है, वह विज्ञाता है और जो विज्ञाता है, वह आत्मा है; क्योंकि (मति आदि) ज्ञानों से प्रात्मा (स्व-पर को) जानता है, इसलिए वह आत्मा है। 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 204 / 2. आचा० शीला टीका पत्रांक 204 / 3. आचा० शीला० टीका पत्रांक 204 / 4. 'एस आतावादी' के बदले चूमि में 'एस आतावाते' पाठ है / अर्थ किया है-अप्पणो वातो आता वातो। -यह आत्मवाद है, अर्थात् आत्मा का (अपना) वाद - प्रात्मवाद होता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org