________________ 372 आचारांग सूत्र----द्वितीय श्रु तस्कन्ध धातीए, मंडावणधातीए, खेल्लावणधातीए', अंधातीए, अंकातो अंकं साहरिज्जमाणे रम्मे मणिकोट्टिमतले गिरिकंदरसमल्लीणे व चंपयपायवे अहाणुपुव्वीए संवड्ढति / 741. जन्म के बाद श्रमण भगवान महावीर का लालन-पालन पांच धाय माताओं द्वारा होने लगा। जैसे कि -1. क्षीर धात्री-दूध पिलानेवाली धाय, 2. मज्जन धात्री-स्नान कराने वाली धाय, 3. मंडन धात्री वस्त्राभूषण पहनानेवाली धाय, 4. क्रीड़ा धात्री क्रीड़ा कराने वाली धाय और 5. अंधात्री-गोद में खिलाने वाली धाय / वे इस प्रकार एक गोद से दूसरी गोद में संहृत होते हुए एवं मणिमण्डित रमणीय आंगन में (खेलते हुए), पर्वतीय गुफा में स्थित (आलीन) चम्पक वृक्ष की तरह कुमार वर्द्धमान क्रमशः सुखपूर्वक बढ़ने लगे। यौवन एवं पाणिग्रहण 742. ततो गं समणे भगवं महावीरे विण्णायपरिणयए- विणियत्तबालभा अप्पुस्सुयाई उरालाई माणुस्सगाई पंचलक्खणाई कामभोगाइ सद्द-फरिस-रस-रूव-गंधाई परियारेमाणे एवं चाए विहरति / __742. उसके पश्चात् श्रमण भगवान महावीर बाल्यावस्था को पार कर युवावस्था में प्रविष्ट हुए / उनका परिणय (विवाह) सम्पन्न हुआ और वे मनुष्य सम्बन्धी उदार शब्द,, रूप, रस, गन्ध और स्पर्श से युक्त पांच प्रकार के कामभोगों का उदासीनभाव में उपभोग करते हुए त्यागभावपूर्वक विचरण करने लगे। विवेचन- यौवन और विवाह प्रस्तुत सूत्र में भगवान् महावीर की युवावस्था के जीवन का चित्रण है / यहाँ तीन बातों की ओर मुख्यतया संकेत किया गया है-(१) यौवन में प्रवेश, 1. 'खेल्लावणा' के बदले पाठान्तर है--खेलावण, खेड्डणण, खेडण / 2. 'गिरिकंदरसमल्लीणे' के वदले पाठान्तर है-गिरिकंदरसलीण, गिरिकंदरस्समन्लीणे / ज्ञाताधर्मकथाग में इसी प्रकार का पाठ मिलता है-'गरिकंदरमल्लीणे व चंपगपायवे' वृत्तिकार ने अर्थ किया है - गिरिक दरेत्ति गिरिनि कूज्जे आलीन इव चम्पकपादपः सूखंसूखेन वर्धते स्मति / ' अर्थात--गिरिकंदर यानी गिरिनिकूज में आलीन–आश्रित चंपकवृक्ष की तरह सुखपूर्वक बढ़ रहे थे। विण्णाय परिणय के बदले कल्पसत्र -54-76 में इसी से मिलता जलता पाठ है-से वियण दारए उम्मुक्कबालभावे 'विण्णायपरिणयमिते।' अर्थात-वह बालक बाल्यभाव से उन्मुक्त होकर परिणय (प्रणय) का विशेष रूप से ज्ञाता हो गया था। अथवा---परिणय (विवाह) विज्ञात-समाप्त सम्पन्न हो चुका था। 4. 'विणियत्त' के बदले पाठान्तर है—'विणियित्त' / अर्थ होता है--विनिवृत्त / 5. 'अप्पुसुयाइ" के बदले पाठान्तर हैं--अप्पुसुग्गाई, अप्पुसत्ताई, अप्पुस्सुताई।' अर्थ प्रायः समान है। 6. 'एवं चाए' के बदले पाठान्तर हैं-'उमंचाए', 'उमंचाते' 'उमच्चाए'। अर्थ समान होता है-त्याग भाव से। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org