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________________ चतुर्थ अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 140-141 'आणाकखी पंडिते अणिहे'- यहाँ वृत्तिकार ने 'आणाकखी' का अर्थ किया है-'आज्ञाकांक्षी'सर्वज्ञ के उपदेश के अनुसार अनुष्ठान करने वाला।' किन्तु आज्ञा की आकांक्षा नहीं होती, उसका तो पालन या अनुसरण होता है, जैसा कि स्वयं टीकाकार ने भी प्राशय प्रकट किया है। हमारी दृष्टि से यहाँ 'अणाकखा' शब्द होना अधिक संगत है, जिसका अर्थ होगा-'अनाकांक्षी'निस्पृह, किसी से कुछ भी अपेक्षा या आकांक्षा न रखने वाला / ऐसा व्यक्ति ही शरीर और शरीर से सम्बन्धित सजीव (परिवार आदि) एवं निर्जीव धन, वस्त्र, आभूषण, मकान आदि के प्रति अस्निह-स्नेहरहित-निर्मोही या राग रहित हो सकेगा। अत: 'अनाकांक्षी' पद स्वीकार कर लेने पर 'अस्निह' या 'अनोह' पद के साथ संगति बैठ सकती है। ___ आगमकार की भावना के अनुसार उस व्यक्ति को पण्डित कहा जा सकता है, जो शरीर और आत्मा के भेद-विज्ञान में निपुण हो। 'एगमप्पाणं सपेहाए'- इस वाक्य की चूर्णिकार ने एकत्वानुप्रेक्षा और अन्यत्व-अनुप्रक्षापरक व्याख्याएँ की हैं / एकाकी आत्मा की संप्रक्षा (अनुप्रेक्षा) इस प्रकार करनी चाहिए एक: प्रकुरुते कर्म, भुनक्त्येकश्च तत्फलम् / जायते म्रियते चेक एको याति भवान्तरम् // 1 // सदेकोऽहं, न मे कश्चित्, नाहमन्यस्य कस्यचित् / न तं पश्यामि यस्याऽहं, नासौ भावीति यो मम // 2 // संसार एवाऽयमनर्थसारः, कः कस्य, कोत्र स्वजनः परो वा / सर्वे भ्रमन्ति स्वजनाः परे च, भवन्ति भूत्वा, न भवन्ति भूयः // 3 // विचिन्त्यमेतद् भवताऽहमेको, न मेऽस्ति कश्चित्पुरतो न पश्चात् / स्वकर्मभिधान्तिरियं ममंव, अहं पुरस्तावहमेव पश्चात् // 4 // ----आत्मा अकेला ही कर्म करता है, अकेला ही उसका फल भोगता है, अकेला ही जन्मता है और अकेला ही मरता है, अकेला ही जन्मान्तर में जाता है। --मैं सदैव अकेला हूँ। मेरा कोई नहीं है, न मैं किसी दूसरे का हूँ। मैं ऐसा नहीं देखता कि जिसका मैं अपने आपको बता सक, न ही उसे भी देखता हूँ, जो मेरा हो सके / 2 / --इस संसार में अनर्थ की ही प्रधानता है। यहाँ कौन किसका है ? कौन स्वजन या पर-जन है ? ये सभी स्वजन और पर-जन तो संसार-चक्र में भ्रमण करते हुए किसी समय (जन्म में) स्वजन और फिर पर-जन हो जाते हैं। एक समय ऐसा आता है जब न कोई स्वजन रहता है, न कोई पर-जन / 3 / --आप यह चिन्तन कीजिए कि मैं अकेला हूँ। पहले भी मेरा कोई न था और पीछे भी मेरा कोई नहीं है / अपने कर्मों (मोहनीयादि) के कारण मुझे दूसरों को अपना मानने की भ्रान्ति हो रही है। वास्तव में पहले भी मैं अकेला था, अब भी अकेला हूँ और पीछे भी मैं अकेला ही रहूँगा।४।२ 1 आचा. शीला. टीका पत्रांक 173 / 3. प्राचारांग वृत्ति एवं नियुक्ति पत्रांक 173 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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