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________________ आचारांग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कम्ध उनको प्रतिष्ठा मत दे, उनके धर्मविरुद्ध उपदेश को यथार्थ मत मान, उनके आडम्बरों और लच्छेदार भाषणों से प्रभावित मत हो, उनके कथन को अनार्यवचन समझ / ' से सम्वलोकसि जे केइ विष्णू-यहाँ सर्वलोक से तात्पर्य समस्त दार्शनिक जगत् से है। जो व्यक्ति धर्म-विरुद्ध हिंसादि की प्ररूपणा करते हैं, उनके विचारों से जो भ्रान्त नहीं होता, वह अपनी स्वतन्त्र बुद्धि से चिन्तन-मनन करता है, हेय-उपादेय का विवेक करता है, सारे संसार के प्राणियों के दुःख का आत्मौपम्यदृष्टि से विचार करता है, उसे समस्त दार्शनिक जगत् में श्रेष्ठ विद्वान कहा गया है / ___मन, वचन और काया से प्राणियों का विधात करने वाली प्रवृत्ति को 'दण्ड' कहा है। यहाँ दण्ड हिंसा का पर्यायवाची है / हिंसायुक्त प्रवृत्ति भाव-दण्ड है / 3 'मुतच्चा' शब्द का संस्कृत रूप होता है--मृतार्चाः। 'अर्चा' शब्द यहाँ दो अर्थों में प्रयुक्त है--शरीर और क्रोध (तेज)। इसलिए 'मृतार्चा' का अर्थ हुआ (1) जिसकी देह अर्चा/साजसज्जा, संस्कार-शुश्र षा के प्रति मृतवत् है-जो शरीर के प्रति अत्यन्त उदासीन या अनासक्त है। (2) क्रोध तेज से युक्त होता है, इसलिए क्रोध को अर्चा अग्नि कहा गया है। उपलक्षण से समस्त कषायों का ग्रहण कर लेना चाहिए / अतः जिसकी कषायरूप अर्चा मृत--विनष्ट हो गई है, वह भी 'मृतार्च' कहलाता है। ___'सम्मत्तदसिणो'-इस शब्द के संस्कृत में तीन रूप बनते हैं-'समत्वदशितः' 'सम्यक्त्वदशिनः, और 'समस्तदशिनः / ये तीनों ही अर्थ घटित होते हैं / सर्वज्ञ अर्हदेव की प्राणिमात्र पर समत्वदृष्टि होती ही है, वे प्राणिमात्र को प्रात्मवत् जानते-देखते है, इसलिए 'समत्वदर्शी' होते हैं / इसी प्रकार वे प्रत्येक वस्तु, व्यक्ति, विचारधारा, घटना आदि के तह में पहुँचकर उसकी सचाई (सम्यक्ता) को यथावस्थित रूप से जानते-देखते हैं, इसलिए वे 'सम्यक्त्वदर्शी' हैं और 'समस्तदर्शी' (सर्वज्ञ-सर्वदर्शी) भी हैं। ___ 'इति कम्मं परिणाय सध्वसो'- का तात्पर्य है, कर्मों से सर्वथा मुक्त एवं सर्वज्ञ होने के कारण वे कर्म-विदारण करने में कुशल वीतराग तीर्थकर कर्मों का ज्ञान करा कर, उन्हें सर्वथा छोड़ने का उपदेश देते हैं। आशय यह है कि वे कर्ममुक्ति में कुशल पुरुष कर्म का लक्षण, उसका उपादान कारण, कर्म की मूल-उत्तर प्रकृतियाँ, विभिन्न कमों के बन्ध के कारण, प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश के रूप में बन्ध के प्रकार, कर्मों, के उदयस्थान, विभिन्न कर्मों की उदीरणा, सत्ता और स्थिति, कर्मवन्ध के तोड़ने-कर्ममुक्त होने के उपाय आदि सभी प्रकार से कर्म का परिज्ञान करते हैं और कर्म से मुक्त होने को प्रेरणा करते हैं 6 1. आचा. शीला. टीका पत्रांक 171 / 2. प्राचा. शीला. टीका पत्रांक 171 / 3. आचा. शीला. टीका पत्रांक 171 / 4. आचा. शीला. टीका पत्रांक 171 / 5. प्राचा. शीला. टीका पत्रांक 171 / 6. आचा. शीला. टीका पत्रांक 172 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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