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________________ 133 चतुर्थ अध्ययन : तृतीय उद्देशक : सूत्र 140-142 विघातकारी) दण्ड (हिंसा) का त्याग किया है, (वे ही श्रेष्ठ विद्वान् होते हैं / ) जो . सत्वशील मनुष्य धर्म के सम्यक विशेषज्ञ होते है, वे ही कर्म (पलित) का क्षय करते हैं / ऐसे मनुष्य धर्मवेत्ता होते हैं, अतएव वे सरल (ऋजु--कुटिलता रहित) होते हैं, (साथ ही वे) शरीर के प्रति अनासक्त या कषायरूपी अर्चा को विनष्ट किये हुए (मृतार्च) होते हैं, अथवा शरीर के प्रति भी अनासक्त होते हैं। ___ इस दुःख को प्रारम्भ (हिंसा) से उत्पन्न हुया जानकर (समस्त हिंसा का त्याग करना चाहिए )-ऐसा समत्वदशियों ( सम्यक्त्वदर्शियों या समस्तदर्शियोंसर्वज्ञों ने कहा है। वे सब प्रावादिक (यथार्थ प्रवक्ता सर्वज्ञ) होते हैं, वे दुःख (दुःख के कारण कर्मो) को जानने में कुशल होते हैं। इसलिए वे कर्मों को सब प्रकार से जानकर उनको त्याग करने का उपदेश देते हैं। 141. यहाँ (अर्हत्प्रवचन में) आज्ञा का आकांक्षी पण्डित (शरीर एवं कर्मादि के प्रति) अनासक्त (स्नेहरहित) होकर एकमात्र आत्मा को देखता हुआ, शरीर (कर्मशरीर) को प्रकम्पित कर डाले / (तपश्चरण द्वारा) अपने कषाय-प्रात्मा (शरीर) को कृश करे, जीर्ण कर डाले। जैसे अग्नि जीर्ण काष्ठ को शीघ्र जला डालती है, वैसे ही समाहित आत्मा वाला वीतराग पुरुष प्रकम्पित, कृश एवं जीर्ण हुए कषायात्माकर्म शरीर को (तप, ध्यान रूपी अग्नि से) शीघ्र जला डालता है / 142. यह मनुष्य-जीवन अल्पायु है, यह सम्प्रेक्षा (गहराई से निरीक्षण) करता इमा साधक अकम्पित रहकर क्रोध का त्याग करे। (क्रोधादि से) वर्तमान में अथवा भविष्य में उत्पन्न होने वाले दुःखों को जाने / क्रोधी पुरुष भिन्न-भिन्न नरकादि स्थानों में विभिन्न दुःखों (दुःख-स्पशों) का अनुभव करता है / प्राणिलोक को (दुःख प्रतीकार के लिए) इधर-उधर भाग-दौड़ करते (विस्पन्दित होते) देख ! जो पुरुष (हिंसा, विषय-कषायादि जनित) पापकर्मों से निवृत्त हैं, वे अनिदान (बन्ध के मूल कारणों से मुक्त) कहे गये हैं। इसलिए हे अतिविद्वान् ! (त्रिविद्य साधक : ) तू (विषय-कषाय की अग्नि से) प्रज्वलित मत हो। --ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-इस उद्देशक में दुःखों और उनके कारणभूत कर्मों को जानने तथा उनका त्याग करने के लिए बाह्य ग्राभ्यन्तर सम्यक् तप का निर्देश किया गया है। आगे के सूत्रों में सम्यक् तप की विधि बताई है। शरीर या कर्मशरीर--कषायात्मा को प्रकम्पित, कृश या जीर्ण करने का निर्देश सम्यक् तप का ही विधान है। 'उवेहेणं-इस पद में जो अहिंसादि धर्म से विमुख हैं, उनकी उपेक्षा करने का तात्पर्य है - उनके विधि-विधानों को, उनकी रीति-नीति को मत मान, उनके सम्पर्क में मत प्रा, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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