SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 182
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 132 आवारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध दोष नहीं है-- इसे अनार्यवचन कहकर शास्त्रकार ने युक्ति से उनकी अनार्यवचनता सिद्ध की है। जैसे रोहगुप्त मन्त्री ने राजसभा में विभिन्न तीथि कों की धर्मपरीक्षा हेतु उन्हीं की उक्ति से उनको दूषित सिद्ध किया था और 'सकुण्डलं वा वयण न पति'- इस गाथा की पादपूर्ति क्षुल्लक मुनि द्वारा करवा कर अई धर्म की श्रेष्ठता सिद्ध की थी, वैसे ही धर्म-परीक्षा के लिए करना चाहिए / नियुक्ति में इसका विस्तृत वर्णन है / ' // द्वितीय उद्देशक समाप्त // तइओ उद्देसओ तृतीय उद्देशक सम्यक तप : दुःख एवं कर्मक्षय-विधि 140. उबेहेणं बहिया य लोकं / से सवलोकसि जे केइ विण्ण / अणुवियि पास णिखित्तदंडा जे केइ सत्ता पलियं चयंति / णरा मुतच्चा धम्मविदु त्ति अंजू आरंभजं दुक्खमिणं ति बच्चा। एवमाहु सम्मत्तदंसिणो। ते सव्वे पावादिया दुक्खस्स कुसला परिण्णमुदाहरंति इति कम्मं परिणाय सव्वसो। 141. इह आणाकंखी पंडिते अणिहे एगमप्पाणं सपेहाए धुणे सरीरं, कसेहि अप्पाणं, जरेहि अप्पाणं / जहा जुन्नाई कट्ठाई हव्ववाहो पमत्थति एवं अत्तसमाहिते अणिहे / 142. विगिच कोहं अविकंपमाणे इमं निरुद्धाउयं सपेहाए। दुक्खं च जाण अदुवाऽऽगमेस्सं / पुढो फासाइं च फासे / लोयं च पास विष्फंदमाणं / जे णिव्वुडा पार्वेहि कम्मेहि अणिदाणा ते वियाहिता / तम्हाऽतिविज्जो णो पडिसंजलेज्जासि ति बेमि। ॥तइओ उद्देसओ समत्तो // 140. इस (पूर्वोक्त अहिंसादि धर्म से) विमुख (बाह्य) जो (दार्शनिक) लोग हैं, उनकी उपेक्षा कर ! जो ऐसा करता है, वह समस्त मनुष्य लोक में जो कोई विद्वान् है, उनमें अग्रणी विज्ञ (विद्वान्) है। तू अनुचिन्तन करके देख-जिन्होंने (प्राणि१. (क) आचारांग नियुक्ति गा० 228, 229, 230, 231, (ख) उत्तरा० अ० 25642-43 वृत्ति (ग) आचा० शीला० पत्रांक 169-170 / 2. 'अणुवियि', 'अगुवाई', 'अणुवितिय', 'अणुचितिय', 'अणुविय' ग्रादि पाठान्तर मिलते हैं / 3. 'सरीर' के स्थान पर सरीरगं' शब्द मिलता है। 4. 'पमथति' का अर्थ चणि में है --- "भिसं मंथेति"- (अत्यन्त मथन करती है-जला देती है)। 5. चूणि में 'विष्कंदमाण' के स्थान पर 'विफुडमाण' शब्द है / 6. 'तम्हाऽतिविज्जो' के स्थान पर .म्हा तिविज्जा' पाठ भी मिलता है। चूणि में पठित 'तम्हा ति विज्ज' पाठ अधिक युक्तिसंगत लगता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy