________________ 136 आचारांग सूत्र–प्रथम श्रुतस्कन्ध सामायिक पाठ' और आवश्यक सूत्र' आदि में इस सम्बन्ध में काफी प्रकाश डाला गया है। 'कसेहि अप्पाणं' -वाक्य में 'आत्मा' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है- 'परव्यतिरिक्त आत्माशरीर'-दूसरों से अतिरिक्त अपना शरीर / यहाँ ध्यान, तपस्या एवं धर्माचरण के समय उपस्थित हुए उपसर्गों, कष्टों और परिषहों को समभावपूर्वक सहन करते हुए कर्मशरीर को कृश, जीर्ण एवं दग्ध करने हेतु जीर्ण काष्ठ और अग्नि की उपमा दी है। किन्तु साथ ही उसके लिए साधक से दो प्रकार की योग्यता की अपेक्षा भी की गयी है-(१) आत्मसमाधि एवं (2) अस्निहता-अनासक्ति की। इसलिए इस प्रकरण में 'आत्मा' से अर्थ है-कषायात्मारूप कर्मशरीर से। इसी सूत्र के 'धुणे सरीरं' वाक्य से इसी अर्थ का समर्थन मिलता है। अतः कर्मशरीर को कृश, प्रकम्पित एवं जीर्ण करना यहाँ विवक्षित प्रतीत होता है। इस स्थूल शरीर की कृशता यहाँ गौण है / तपस्या के साथ-साथ आत्मसमाधि और अनासक्ति रखते हुए यदि यह (शरीर) भी कृश हो जाय तो कोई बात नहीं। इसके लिए निशीथभाष्य की यह गाथा देखनो चाहिए ___"इंदियाणि कसाए में गारवे य किसे कुरु / णो वयं ते पसंसामो, किसं साहु सरीरगं / "-3758 -एक साधु ने लम्बे उपवास करके शरीर को कृश कर डाला / परन्तु उसका अहंकार, क्रोध आदि कृश नहीं हुआ था। वह जगह-जगह अपने तप का प्रदर्शन और बखान किया करता था / एक अनुभवी मुनि ने उसकी यह प्रवृत्ति देखकर कहा-हे साधु ! तुम इन्द्रियों, विषयों, कषायों और गौरव-अहंकार को कृश करो! इस शरीर को कृश कर डाला तो क्या हुअा ? कृश शरीर के कारण तुम प्रशंसा के योग्य नहीं हो। _ विगिच कोहं अविकपमाले'- इसका तात्पर्य यह है कि क्रोध आने पर मनुष्य का हृदय, मस्तिष्क व शरीर कम्पायमान हो जाता है, इसलिए अन्तर में क्रुद्ध-कम्पायमान व्यक्ति क्रोध 1. आचार्य अमितगति ने सामायिक पाठ में भी इसी एकत्वभाव की सम्युष्टि की है--- एक: सदा शाश्वतिको ममाऽत्मा, विनिर्मल: साधिगम-स्वभावः / बहिर्भवाः सन्त्यपरे समस्ताः, न शाश्पता: कर्मभवाः स्वकीयाः // 26 // -ज्ञान स्वभाव वाला शुद्ध और शाश्वत अकेला आत्मा ही मेरा है, दूसरे समस्त पदार्थ प्रात्मबाह्य है, वे शाश्वत नहीं हैं। वे सब कर्मोदय से प्राप्त होने से अपने कहे जाते हैं, वस्तुत: वे अपने नहीं हैं, बाह्यभाव हैं। 2. आवश्यक सूत्र में संस्तार-पौरुषी में एकत्वभावना-मूलक ये गाथाएँ पढ़ी जाती हैं एगोडा नत्थि मे कोई, नाहमन्नस्म कस्सह / एवं अदीणमणसो अप्पाणमांसासइ // 11 // एगो मे सासओ अप्पा, नाणदसणस जओ। सेसा मे बाहिरा भावा सवे संजोगलक्खणा // 12 // 3. आचा० शीला टीका पत्रांक 173 / 4. आचा युकिा शा० 234 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org