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________________ चतुर्थ अध्ययन : चतुर्य उद्देशक : सूत्र 142 137 को नहीं छोड़ सकता / वह तो एकदम कम्पायमान हुए बिना ही दूर किया जा सकता है। इससे पूर्व सूत्र में 'अस्निह' पद से रागनिवृत्ति का विधान किया था, अब यहाँ क्रोध-त्याग का निर्देश करके द्वषनिवृत्ति का विधान किया गया है। 'दुक्खं च जाणविष्फंदमाण'-इन वाक्यों में क्रोध से होने वाले वर्तमान और भविष्य के दुःखों को ज्ञपरिज्ञा से जानकर प्रत्याख्यानपरिज्ञा से छोड़ने की प्रेरणा दी गयी है। क्रोध से भविष्य में विभिन्न नरकभूमियों में होने वाले तथा सर्पादि योनियों में होने वाले दुःखों का दिग्दर्शन भी कराया गया है। साथ ही यह भी स्पष्ट किया गया है कि क्रोधादि के परिणामस्वरूप केवल अपनी आत्मा ही दु:खों का अनुभव नहीं करती, अपितु सारा संसार क्रोधादिवश शारीरिक-मानसिक दुःखों से आक्रान्त होकर उनके निवारण के लिए इधर-उधर दौड़-धूप करता रहता है, इसे तू विवेक-चक्षुओं से देख ! विष्फवमाण' का अर्थ वृत्तिकार ने किया है-"अस्वतन्त्र रूप से इधर-उधर दुःखप्रतीकार के लिए दौड़ते हुए।"२ 'जे णिवुडा पावेहि कम्मेहि अणिदाणा'—यह लक्षण उपशान्तकषाय साधक का है / 'निव्वुडा' का अर्थ है-तीर्थंकरों के उपदेश से जिनका अन्तःकरण वासित है, विषय-कषाय की अग्नि के उपशम से जो निवृत्त हैं-शान्त हैं, शीतीभूत हैं। पापकर्मों से अनिदान का अर्थ है-पाप कर्मबन्ध के निदान-(मूल कारण रागद्वेष) से रहित / 3 // तृतीय उद्देशक समाप्त // चउत्थो उद्देसओ चतुर्थ उद्देशक सम्यक्चारित्र : साधना के संदर्भ में 143. आवोलए पवीलए णिप्पीलए जहित्ता पुश्वसंजोगं हिच्चा उवसमं / तम्हा अविमणे वोरे सारए समिए सहिते सदा जते / दुरणुचरो' मग्गो वीराणं अणियट्टगामीणं / 1. प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 173 / आचा० शीला० टीका पत्रांक 174 / प्राचा० शीला० टीका पत्रांक 174 / 5. चूणि में इसके स्थान पर 'इहेच्चा उसम' पाठ मिलता है, जिसका अर्थ वहां किया गया है.---''इहेति इह प्रवचने, एउचा आगतु इस प्रवचन (वीतराग दर्शन) में (उपशम) प्राप्त करने के लिए। 5. दुरणुचरो ......' आदि वाक्य का अर्थ चूणि में इस प्रकार है.---'केण दुरणुचरो ? जे ण अणिय गामी / " अर्थात् (मह) मार्ग किसके लिए दुरनुचर है ? जो अनिवृत्तगामी (मोक्षगामी = मोक्षपथगामी) नहीं हैं / "वीरा तव-णियम-संजमेसु ण विसीतंति अणियट्टकामी।"-अर्थात् अनिवृत्त (मोक्ष) कामी पीर तप, नियम और संयम से कभी घबराते नहीं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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