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________________ 112 आचारांग सूत्र-द्वितीय श्रुतस्कन्ध प्रतिमाओं का स्वीकार करके विचरण करते हैं, जो मैं भी इस प्रतिमा का स्वीकार करके विचरण करता हूँ, ये सभी जिनाज्ञा में उद्यत है और इस प्रकार परस्पर एक-दूसरे की समाधिपूर्वक विचरण करते हैं। विवेचन-सात पिण्डषणाएँ और सात पानंषणाए : विहंगावलोकन सूत्र 406 और 410 में इस अध्ययन में प्रारम्भ से लेकर अन्त तक विविध पहलुओं से पिण्डषणा और पानेषणा के सम्बन्ध में यत्र तत्र उल्लेख किया गया है, उसके सारांश रूप में फलश्रुति सहित विहंगावलोकन प्रस्तुत किया गया है। संक्षेप में सात पिण्डैषणाओं का नाम इस प्रकार है-(१) असंसृष्टा. (2) संसृष्टा, (3) उद्धृता, (4) अल्पलेपा, (5) उपस्थिता या उद्गृहीता, (6) प्रगृहीता, और (7) उज्झितर्मिका। इसी प्रकार संक्षेप में सात पानेषणाए हैं-(१) असंसृष्टा, (2) संसृष्टा (3) उद्धता, (4) अल्पलेपा या नानात्वसंज्ञा (5) उद्गृहीता, (6) प्रगृहीता और (7) उज्झित धर्मिका / इन सबमें प्रतिपादित विषय की झांकी बताने के लिए शास्त्रकार ने एक-एक सूत्र का संक्षिप्त निरूपण कर दिया है। इसी प्रकार पानेषणा के सम्बन्ध में संक्षिप्त वर्णन किया गया है। कुल मिलाकर संक्षेप में सुन्दर निष्कर्ष दे दिया गया है, ताकि मन्दबुद्धि एवं विस्मरणशील साधु-साध्वी भी पुनः-पुन: अपने गुरुजनादि से न पूछकर सूत्ररूप में इन एषणाओं को हृदयंगम करलें। इन दोनों प्रकार की एषणाओं में गवेषणषणा, ग्रहणेषणा और परिभोगैषणा या ग्रासैषणा का समावेश हो जाता है।' ___ अधिकारी-वृत्तिकार के अनुसार इन पिण्डैषणा-पानैषणाओं के अधिकारी दोनों प्रकार के साधु हैं—गच्छान्तर्गत (स्थविरकल्पी) और गच्छविनिर्गत (जिनकल्पी)। गच्छान्तर्गत स्थविरकल्पी साधु-साध्वियों के लिए सातों ही पिण्डेषणाओं और पानेषणाओं का पालन करने की भगवदाज्ञा है, किन्तु गच्छनिर्गत (जिनकल्पी) साधुओं के लिए प्रारम्भ की दो पिण्डेषणाओंपानैषणाओं का ग्रहण करने की आज्ञा नहीं है, शेष पांचों पिण्ड-पानषणाओं का अभिग्रहपूर्वक ग्रहण करने की अनुज्ञा है / दृष्टिकोण--अध्ययन की परिसमाप्ति पर शास्त्रकार ने इन पिण्ड-पानैषणाओं के पालन कर्ता को अपना दृष्टिकोण तथा व्यवहार उदार एवं नम्र रखने के लिए दो बातों की ओर ध्यान खींचा है--(१) अहंकारवश दूसरों को हीन मत मानो, न उन्हें हेयदृष्टि से देखो, (2) स्वयं को भी हीन मत मानो, न हीनता की वृत्ति को मन में स्थान दो। वृत्तिकार इसका तात्पर्य बताते हुए कहते हैं-इन सात पिण्ड-पानंषणाओं में से किसी एक प्रतिमा को ग्रहण 1. (क) आचारांग वृत्ति पत्रांक 357 के आधार पर (ख) आचारांग चूर्णि-मूलपाठ टिप्पण पृ० 142 2. आचारांग वृत्ति पत्रांक 357 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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