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________________ आचारलंग सूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध साधु को भिक्षाचरी करते समय तीन मानसिक दोषों की संभावना होती है भभिमान-पाहारादि उचित मात्रा में मिलने फर अपने प्रभाव, लन्धि आदि का गर्व करना / परिग्रह-आहारादि की विपुल मात्रा में उपलब्धि होती देखकर-उनके संग्रह की भावना जगना / शोक-इच्छित वस्तु की प्राप्ति न होने पर अपने भाग्य को, या जन-समूह को, कोसना, उन पर रोष तथा आक्रोश करना एवं मन में दुखी होना। प्रस्तुत सूत्र में लाभो ति ण मज्जेज्जा-अादि पद द्वारा इन तीनों दोषों से बचने का निर्देश दिया गया है। 'परिग्गहाऔं अण्पाणं अवसक्केज्जा' -परिग्रह से स्वयं को दूर हटाए - इस वाक्य का अर्थ भावना से है / अनगार को जो निर्दोष वस्तु प्राप्त होती है, उसको भी वह अपनी न समझे, उसके प्रति अपनापन न लाये, बल्कि यह माने कि "यह वस्तु मुझे प्राप्त हुई है, वह प्राचार्य की है, अर्थात् संघ की है, या प्राचार्य के आदेश से मैं इसका स्वयं के लिए उपयोग कर सकूँगा।" इस चिन्तन से, वस्तु के प्रति ममत्व का विसर्जन एवं सामूहि लता को भावना (ट्रस्टीशिप की मनोवृत्ति) का विकास होता है और साधक स्वयं को परिग्रह से दूर रख लेता है। _ 'अन्यथादृष्टि'- 'अण्णहा ण पासए'--का स्पष्टीकरण करते हुए चूर्णिकार ने उक्त तथ्य स्पष्ट किया है- मम एतं आयरियसंतगं'~यह प्राप्त वस्तु मेरी नहीं, प्राचार्य की निश्राय की है। अन्यथादृष्टिका दूसरा अर्थ यह भी है कि जैसे सामान्य गृहस्थ (अज्ञानी मनुष्य) वस्तु का उपयोग करता है, वैसे नहीं करे / ज्ञानी और अज्ञानी दोनों ही वस्तु का उपयोग करते है, किन्तु उनका उद्देश्य, भावना तथा विधि में बहुत बड़ा अन्तर होता है ज्ञानी पुरुष-प्रारम-विकास एवं संयम-यात्रा के लिए, अनासक्त भावना के साथ यतना एवं विधिपूर्वक उपयोग करता है / भज्ञानी मनुष्य-पौद्गलिक सुख के लिए, आसक्तिपूर्वक असंयम तथा प्रविधि से वस्तु का उपयोग करता है। अज्ञानी के विपरीत ज्ञानी का चिन्तन व आचरण 'अन्यथादृष्टि' है। 'परिहार' के पीछे भी दो दृष्टियाँ चूर्णिकार ने स्पष्ट की हैं धारणा-परिहार-बुद्धि से वस्तु का त्याग (ममत्व-विसर्जन) तथा उपभोग-परिहार शरीर से वस्तु के उपयोग का त्याग (वस्तु-संयम)।' इस आर्य मार्ग पर चलने वाला कुशल पुरुष परिग्रह में लिप्त नहीं होता। वास्तव में यही जल के बीच कमल की भाँति निलेप जीवन बिनाने की जीवन-कला है / 1. परिहारो दुविहो-धारणापरिहारो व उवभोगपरिहारी य-प्राचा० चूणि ( मुनि जम्बू० टिप्पण पृ० 26 ) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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