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________________ 13 द्विसीय अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 89 एस मग्गे आरिएहि पवेदिते, जहेत्थ कुसले णोलिपिज्जासि ति बेमि / 89. वह (संयमी) वस्त्र, पात्र, कम्बल, पाद प्रोंछन, (पांव पोंछने का वस्त्र), अवग्रह-स्थान और कटासन-चटाई आदि (जो गृहस्थ के लिए निर्मित हों) उनकी याचना करे। आहार प्राप्त होने पर, आगम के अनुसार, अनगार को उसकी मात्रा का ज्ञान होना चाहिए। इच्छित आहार आदि प्राप्त होने पर उसका भद-अहंकार नहीं करे। यदि प्राप्त न हों तो शोक (चिता) न करे। यदि अधिक मात्रा में प्राप्त हो, तो उसका संग्रह न करे। परिग्रह से स्वयं को दूर रखे। जिस प्रकार गृहस्थ परिग्रह को ममत्व भाव से देखते हैं, उस प्रकार न देखे--अन्य प्रकार से देखे और परिग्रह का वर्जन करे। यह (अनासक्ति का मार्ग प्रार्य-तीर्थंकरों ने प्रतिपादित किया है, जिससे कुशल पुरुष (परिग्रह में) लिप्त न हो। -ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन–साधु, जीवन यापन करता हुआ ममत्व से किस प्रकार दूर रहे, इसका मनोवैज्ञानिक विश्लेषण यह सूत्र प्रस्तुत करता है। वस्त्र, पात्र, भोजन आदि जीवनोपयोगी उपकरणों के बिना जीवन-निर्वाह नहीं हो सकता / साधु को इन वस्तुओं की गहस्थ से याचना करनी पड़ती है। किन्तु वह इन वस्तुओं को 'प्राप्य' नहीं समझता / जैसे समुद्र पार करने के लिए नौका की आवश्यकता होती है, किन्तु समुद्रयात्री नौका को साध्य व लक्ष्य नहीं मानता, न उसमें आसक्त होता है, किन्तु उसे साधन मात्र मानता है और उस पर पहुँचकर नौका को छोड़ देता है / साधक धर्मोपकरण को इसी दृष्टि से ग्रहण करे और मात्रा अर्थात् मर्यादा एवं प्रमाण का ज्ञान रखता हुआ उनका उपयोग करे। उग्गहणं (अवग्रहण) शब्द के दो अर्थ हैं-(१) स्थान अथवा (2) प्राज्ञा लेकर ग्रहण करना / आज्ञा के अर्थ में पांच अवग्रह- देवेन्द्र अवग्रह, राज अवग्रह, गहपति भवग्रह, शम्यातर अवग्रह और सार्मिक अवग्रह, प्रसिद्ध है।' _ 'मातं जाणेज्जा' मात्रा को जानना-यह एक खास सूचना है / माषा-अर्थात् भोजन का परिमाण जाने / सामान्यतः भोजन की मात्रा खुराक का कोई निर्शचत माप नहीं हो सकता, क्योंकि इसका सम्बन्ध भूख से है / सब की भूख या खुराक समान नहीं होती, इसलिए भोजन की मात्रा भी समान नहीं है। फिर भी सर्व सामान्य अनुपात-दृष्टि से भोजन की मात्रा साधु के लिए बत्तीस कवल (कौर) और साध्वी के लिए भठाईस कवलप्रमाण बताई गई है।' उससे कुछ कम ही खाना चाहिए। मात्र-शब्द को आहार के अतिरिक्त, वस्त्र, पात्र आदि उपकरणों के साथ भी जोड़ना चाहिए , अर्थात् प्रत्येक ग्राह्य वस्तु की आवश्यकता को समझे, व जितना पावश्यक हो उतना ही ग्रहण करे। 1. भगवती 1632 तथा प्राचारांग सूत्र 635 / 2. भगवती 7.1 तथा प्रोपपातिक सूत्र; तप अधिकार / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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