________________ 62 माचाररांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्कन्ध उन बाह्य साधनों का ग्रहण सिर्फ संयमनिर्वाह की दृष्टि से होना चाहिए, उनके प्रति ममत्व' भाव न रखे / इसीलिए यहाँ 'अममत्व" की विशेष सूचना है। शरीर और संयम के उपकरण भी ममत्व होने पर परिग्रह हो जाते हैं / / कालेणुहाई-कालानुष्ठायी-से तात्पर्य है, समय पर उचित उद्यम एवं पुरुषार्थ करने वाला / योग्य समय पर योग्य कार्य करना यह भाव कालानुष्ठायी से ध्वनित होता है। अपडिण्णे-अप्रतिज्ञ--किसी प्रकार का भौतिक संकल्प (निदान) न करने वाला।' प्रतिज्ञा का एक अर्थ 'अभिग्रह' भी है। सूत्रों में विविध प्रकार के अभिग्रहों का वर्णन आता है। और तपस्वी साधु ऐसे अभिग्रह करते भी हैं। किन्तु उन अभिग्रहों के मूल में मात्र आत्मनिग्रह एवं कर्मक्षय को भावना रहती है, जबकि यहाँ राग-द्वेष मूलक किसी भौतिक संकल्पप्रतिज्ञा के विषय में कहा गया है, जिसे 'निदान' भी कहते हैं। अप्रतिज्ञ शब्द से एक तात्पर्य यह भी स्पष्ट होता है कि श्रमण किसी विषय में प्रतिज्ञाबद्ध-एकान्त अाग्रही न हो / विधि-निषेध का विचार/चित्तन भी अनेकान्तदृष्टि से करना चाहिए / जैसा कि कहा गया है म य किचि भणुण्णायं पडिसिद्ध वा वि जिणवरिदेहि / मोत ण मेहुणभावं, न तं विणा राग-दोसेहिं / ' ....... --जिनेश्वरदेव ने एकान्त रूप से न तो किसी कर्तव्य-(प्राचार) का विधान किया है, और न निषेध / सिर्फ मैथुनभाव (अब्राह्मचर्य, स्त्री-संग) का ही एकान्त निषेध है, क्योंकि उसमें राग के बिना प्रवृत्ति हो हो नहीं सकतो अत: उसके अतिरिक्त सभी प्राचारों का विधि-निषेध-उत्सर्ग-अपवाद सापेक्ष दृष्टि से समझना चाहिए / अप्रतिज्ञ शब्द में यह भाव भी छिपा हुअा है-यह टीकाकार का मन्तव्य है। परन्तु प्रत्याख्यान में अनेकान्त मानना उचित नहीं है / विवशता या दुर्बलतावश होनेवाले प्रत्येक अपवाद-सेवन को अनेकान्त मानना भूल है। व्रतों में स्वीकृत अनेकान्त व्रतों के स्वरूप को विकृत कर देता है। प्रस्तुत प्रसंग में 'अपडिन्ने' शब्द का उपयुक्त अर्थ प्रसंगोचित भी नहीं है। क्योंकि परिग्रह के ममकार और काल की प्रतिबद्धता के परिहार का प्रसंग है। अतः किसी भी बाह्याभ्यन्तर परिग्रह और अकाल से संबन्धित प्रतिज्ञा पकड़ न करने वाला' करना ही संगत है। वस्त्र-पात्र-आहार समय 89. वत्थं पडिग्गहं कंबलं पादपुछणं उग्गहं च कडासणं एतेसु चेव जाणेज्जा / लद्ध आहारे अणगारो मातं जाणेज्जा। से जहेयं भगवता पवेदितं / लाभो त्ति ण मज्जेज्जा, अलाभो ति ण सोएज्जा, बहु पि लधुण णिहे / परिग्गहाओ अप्पाणं अवसक्केउजा / अण्णहा णं पासए परिहरेज्जा। 1. आचा० टीका पत्रांक 120 2 2. औपपातिक सूत्र, श्रमण अधिकार / 3. (क) अभि० राजेन्द्र भाग 1. 'अपडिण्ण' शब्द / (ख) प्राचा० टीका पत्रांक 120 / 2 / 4. अण्णतरेण पासएण परिहरिज्जा--- चूमि में इस प्रकार का पाठ है।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org