________________ पंचम अध्ययन : पंचम उद्देशक : सूत्र 167-168 177 विशिष्ट साधना करने वाला साधु आता है, जो देता नहीं, शास्त्रीय ज्ञान आदि लेता है। चतुर्थ भंग में प्रत्येकबुद्ध पाते हैं, जो ज्ञान न देते हैं, न लेते हैं। प्रस्तुत सूत्र में प्रथम भंग वाले ह्रद के रूपक द्वारा प्राचार्य की महिमा का वर्णन किया है। प्राचार्य प्राचार्योचित 36 गुणों, पाँच प्राचारों, अष्ट सम्पदाओं एवं निर्मल ज्ञान से परिपूर्ण होते हैं / वे संसक्तादि-दोष रहित सुखविहार योग्य (सम) क्षेत्र में रहते हैं, अथवा ज्ञानादि रत्नत्रय रूप समता की भावभूमि में रहते हैं / उनके कषाय उपशान्त हो चुके हैं या मोहकर्मरज उपशान्त हो गया है, षड्जीवनिकाय के या संघ के संरक्षक हैं, अथवा दूसरों को सदुपदेश देकर नरकादि दुर्गतियों से बचाते हैं, श्रुतज्ञान रूप स्रोत के मध्य में रहते हैं, शास्त्रज्ञान देते हैं, स्वयं लेते भी हैं। महेसिणो के संस्कृत में 'महर्षि' तथा 'महषी' दो रूप होते हैं। 'महैषी' का अर्थ हैमहान्---मोक्ष की इच्छा करने वाला। पणाणमंता पबुद्धा-'प्रज्ञावान् और प्रबुद्ध' चूर्णिकार प्रज्ञावान् का अर्थ चौदह पूर्वधारी और प्रबुद्ध का अर्थ मनःपर्यवज्ञानी करते हैं / वर्तमान में प्राप्त शास्त्रज्ञान में पारंगत विद्वान् को भी प्रबुद्ध कहते हैं। 'सम्ममेत ति पासहा का प्रयोग चिन्तन की स्वतन्त्रता का सूचक है / शास्त्रकार कहते हैं--मेरे कहने से तू मत मान, अपनी मध्यस्थ व कुशाग्र बुद्धि से स्वतन्त्र, निष्पाक्ष चिन्तन द्वारा इसे देख। सत्य में हर भद्धा 167. वितिगिच्छसमावन्नेणं अप्पाणेणं णो लभति समाधि / सिता वेगे अणुगच्छंति, असिता वेगे अणुगच्छति / अणुगच्छमाणेहि अणणुगच्छमाणे कहं ण णिविज्जे? 168. तमेव सच्चं गीसंकं जं जिणेहिं पवेदितं / 167. विचिकित्सा-प्राप्त (शंकाशील) आत्मा समाधि प्राप्त नहीं कर पाता। कुछ लघुकर्मा सित (बद्ध/गृहस्थ) प्राचार्य का अनुगमन करते हैं, (उनके कथन को समझ लेते हैं) कुछ असित (अप्रतिबद्ध अनगार) भी विचिकित्सादि रहित होकर (प्राचार्य का) अनुगमन करते हैं। इन अनुगमन करने वालों के बीच में रहता हा (आचार्य का) अनुगमन न करने वाला (तत्त्व नहीं समझने वाला) कैसे उदासीन (संयम के प्रति खेदखिन्न) नहीं होगा? 1. (क) आचा. शीला. टीका पत्रांक 191 / (ख) आचार, श्रुत, शरीर, बचन, वाचना, मति, प्रयोग और संग्रहपरिज्ञा, ये आचार्य की आठ गणि-सम्पदाएँ हैं। -आयारदसा 4 पृ० 21 2. देखें; दशवै० 3.1 को अग० चूणि पृ० 59 तथा जिन० चू० पृ० 111, हारि० टीका 116 / –महान्तं एषितु शीलं येषां ते महेसिणो-- 3. चूणि में पाठान्तर--'सिया वि अणुगच्छंति, असिता वि अणुगच्छति एगवा' / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org