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________________ आचारांग सूत्र--प्रथम श्रुतस्काय पंचमो उद्देसओ पंचम उद्देशक आचार्य-महिमा 166. से बेमि, सं जहा---अवि हरवे परिपुण्णे चिठ्ठति समंसि भोमे उवसंतरए सारक्खमाणे / से चिट्ठति सोतमज्झए / से पास सव्वतो गुत्ते / पास लोए महेसिणो जे य पण्णाणमंता पबुद्धा आरंभोवरता / सम्ममेतं ति पासहा / कालस्स कंखाए परिव्ययंति त्ति बेमि / 166. मैं कहता हूँ-जैसे एक जलाशय (ह्रद) जो (कमल या जल से) परिपूर्ण है, समभूभाग में स्थित है, उसकी रज उपशान्त (कीचड़ से रहित) है, (अनेक जलचर जीवों का) संरक्षण करता हुआ, वह जलाशय स्रोत के मध्य में स्थित है। (ऐसा ही आचार्य होता है)। इस मनुष्यलोक में उन (पूर्वोक्त स्वरूप वाले) सर्वतः (मन, वचन और काया से) गुप्त (इन्द्रिय-संयम से युक्त) महषियों को तू देख, जो उत्कष्ट ज्ञानवान् (आगमज्ञाता) हैं, प्रबुद्ध हैं और प्रारम्भ से विरत हैं / यह (मेरा कथन) सम्यक् है, इसे तुम अपनी तटस्थ बुद्धि से देखो। . वे काल प्राप्त होने की कांक्षा समाधि-मरण की अभिलाषा से (जीवन के अन्तिम क्षण तक मोक्षमार्ग में) परिव्रजन (उद्यम) करते हैं / ऐसा मैं कहता हूँ। विवेचन-इस सूत्र में ह्रद (जलाशय) के रूपक द्वारा प्राचार्य की महिमा बताई गई है 'भवि हरदे...' पाठ में 'अवि' शब्द ह्रद के अन्य विकल्पों का सूचक है। इसलिए वृत्तिकार ने चार प्रकार के ह्रद बताकर विषय का विशद विवेचन किया है (1) एक ह्रद ऐसा है, जिसमें से पानी-जल प्रवाह निकलता है और मिलता भी है, सीता और सीतोदा नामक नदियों के प्रवाह में स्थित ह्रद समान / (2) दूसरा ह्रद ऐसा है, जिसमें से जल-स्रोत निकलता है किन्तु मिलता नहीं, हिमवान पर्वत पर स्थित पद्महदवत् / (3) तीसरा ह्रद ऐसा है, जिसमें से जल-स्रोत निकलता नहीं, मिलता है, लवणोदधि के समान / (4) चौथा ह्रद ऐसा है, जिसमें से न जल-स्रोत निकलता है और न मिलता है, मनुष्यलोक से बाहर के समुद्रों की तरह / श्रुत (शास्त्रज्ञान) और धर्माचरण की दृष्टि से प्रथम भंग में स्थविरकल्पी प्राचार्य आते हैं, जिनमें दान और आदान (ग्रहण) दोनों हैं, वे शास्त्रज्ञान एवं प्राचार का उपदेश देते भी हैं तथा स्वयं भी ग्रहण एवं आचरण करते हैं / दूसरे भंग में तीर्थंकर पाते हैं, जो शास्त्रज्ञान एवं उपदेश देते तो हैं, किंतु लेने की आवश्यकता उन्हें नहीं रहती। तृतीय भंग में 'अहालं दिक' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003469
Book TitleAgam 01 Ang 01 Acharanga Sutra Stahanakvasi
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhukarmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1989
Total Pages938
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size23 MB
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