________________ पंचम अध्ययन : चतुर्थ उद्देशक : सूत्र 164-165 175 'उड्ई ठाणं ठाएज्जा-ऊर्ध्वस्थान मुख्यतया सर्वांगासन, वृक्षासन आदि का सूचक है। भगवतीसूत्र में इस मुद्रा को 'उड़ जाणू अहो सिरे' के रूप में बताया है। हठयोग प्रदीपिका में भी 'अधःशिराश्योर्चपाव:' का प्रयोग बताया है। इस आसन से कामकेन्द्र शान्त होते हैं, जिससे कामवासना भी शान्त हो जाती है / 'उड्ढं जाण अहो सिरे' का अर्थ उत्कुटिकासन है और 'प्रधःशिराश्चोर्ध्वपाद:' का अर्थ शीर्षासन / जो मनीषी 'उड्ढं....' का अर्थ शीर्षासन लेते हैं, वह आगम-सम्मत नहीं है / अंगशास्त्रों में शीर्षासन का कहीं भी उल्लेख नहीं है। साधक के सुखशील होने पर भी कामवासना उभरती है, इसीलिए कहा गया है'आयावयाहि वय सोगमल्ल' आतापना लो, सुकुमारता को छोड़ो। ग्रामानुग्राम विहार करने से श्रम या सहिष्णुता का अभ्यास होता है, सुखशीलता दूर होती है, विशेषतः एक स्थान पर रहने से होने वाले सम्पर्कजनित मोह-बन्धन से भी छुटकारा हो जाता है / . 'चए इत्यो मण'--स्त्रियों में प्रवृत्त मन का परित्याग करने का प्राशय मन को कहीं और जगह बाँधकर फेंकना नहीं है, अपितु मन को स्त्री के प्रति काम-संकल्प करने से रोकना है, हटाना है; क्योंकि काम-वासना का मूल मन में उत्पन्न संकल्प ही है। इसीसिए साधक कहता है "काम ! जानामि ते मूलं, संकल्पात् किल जायसे। . संकल्पं न करिष्यामि, सतो. मे न भविष्यसि // " - 'काम ! मैं तुम्हारे मूल को जानता हूँ कि तू संकल्प से पैदा होता है। मैं संकल्प ही नहीं करूंगा, तब तू मेरे मन में पैदा नहीं हो सकेगा। निष्कर्ष यह है कि सत्र 164 में काम-निवारण के मख्य उपाय बताये गये हैं जो उत्तरोत्तर प्रभावशाली हैं यथा (1) नीरस भोजन करना- विगय-त्याग, (2) कम खानाऊनोदरिका, (3) कायोत्सर्ग-विविध प्रासन करना, (4) ग्रामानग्राम विहार---एक स्थान पर अधिक न रहना, (5) आहार-त्याग:-दीर्घकालीन तपस्या करना तथा (6) स्त्री-संग के प्रति मन को सर्वथा विमुख रखना / इन उपायों में से जिस साधक के लिए जो उपाय अनुकूल और लाभदायी हो, उसी का उसे सबसे अधिक अभ्यास करना चाहिए | जिस-जिस उपाय से विषयेच्छा निवृत्त हो, वह-वह उपाय करना चाहिए। वृत्तिकार ने तो हठयोग जैसा प्रयोग भी बता दिया है-"पर्यन्ते" अपि पातं विवभ्यान अप्युबन्धन कुर्यात्, न च स्त्रीषु मनः कुर्यात् / " सभी उपायों के अन्त में आजीवन सर्वथा आहार-त्याग करे, ऊपर से पात (गिर जाय), उदबन्धन करे, फांसी लगा ले किन्तु स्त्री के साथ अनाचार सेवन की बात भी मन में न लाए / चतुर्ष उद्देशक समाप्त 1. आचा० शीला टोका पत्रांक 198 / 3. अध्याय 1 श्लोक 81 5. प्राचा. शोलाटीका पत्रांक 198 / 2. शतक 1 उद्देशक 9 4. दशवं० 215 6. प्राचा. शीला टीका पत्रांक 198 / Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org